सारांश
मई 2017 में हरियाणा राज्य के रोहतक जिले में एक 23 वर्षीय महिला की हत्या कर दी गई. पीड़िता का शव दो लोगों द्वारा उनके कथित अपहरण के चार दिन बाद मिला, जिन्होंने उनके साथ बलात्कार किया, सिर ईंट से कुचल दिया और उसके बाद शरीर पर कार चढ़ा दी. शव परीक्षण से पता चला कि अंदरूनी चोटें नृशंस और क्रूर यौन उत्पीड़न का नतीज़ा थीं.
पीड़िता के परिवार ने आरोप लगाया कि घटना से एक महीने पहले उन्होंने मुख्य आरोपी के नाम का जिक्र करते हुए पुलिस को शिकायत की थी. आरोपी शादी करने से इंकार करने के कारण पीड़िता को परेशान कर रहा था. परिवार के सदस्यों ने कहा कि पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की.
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दिसंबर 2012 में दिल्ली में एक युवा छात्रा के सामूहिक बलात्कार और मौत के पांच साल बाद, जिसने कानूनी और अन्य सुधारों की राह दिखाई, भारत में यौन हिंसा और बलात्कार की उत्तरजीवी लड़कियों और महिलाओं को न्याय और स्वास्थ्य देखभाल, परामर्श और कानूनी सहायता जैसी सहायता सेवाएं पाने में भारी बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है. अप्रैल 2013 में, भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से कानून में संशोधन किया, महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध हिंसा से सम्बंधित अपराधों की नई श्रेणियों को शामिल किया और सजा को और अधिक कठोर बना दिया. विधेयक पारित होने के बाद तत्कालीन गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा था, "भारत में ऐसा कानून पहली बार अस्तित्व में आया है और संसद ने इसकी मंजूरी दी है. यह देश में क्रांति का आगाज़ करेगा."
हालांकि सकारात्मक कदम उठाए गए हैं, जिसमें भारतीय राजनेताओं और अधिकारियों की महती राजनीतिक इच्छाशक्ति का संकेत दिखाई देता है, मगर जिन परिवर्तनों का वादा किया गया था वे हकीकत से बहुत दूर रह गए हैं. मई 2017 के रोहतक मामले में, पुलिस ने यह दावा करते हुए अपना बचाव किया कि परिवार ने केवल मौखिक शिकायत की थी और बाद में इसे वापस ले लिया. इस बलात्कार और हत्या पर सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन के बाद ही राज्य सरकार ने मामला निपटाने में लापरवाही के लिए दो पुलिस अधिकारियों को निलंबित और एक अन्य को स्थानांतरित कर दिया. ह्यूमन राइट्स वॉच ने यह भी पाया कि भारत में महिलाओं और लड़कियों को अक्सर कलंकित होने के डर के कारण हमलों की रिपोर्ट दर्ज कराने से डर लगता है, और क्योंकि पीड़ितों या गवाहों को कोई सुरक्षा प्रदान नहीं करनेवाली आपराधिक न्याय प्रणाली में वे संस्थागत बाधाओं को पार करने में असमर्थ महसूस करती हैं.
यौन हिंसा और बलात्कार की उत्तरजीवियों, विशेषकर हाशिए के समुदायों के लोग, पुलिस शिकायतें दर्ज कराना मुश्किल पाते हैं. वे अक्सर पुलिस थानों और अस्पतालों में अपमान का सामना करते हैं, उन्हें अब भी चिकित्सा पेशेवरों द्वारा अपमानजनक परीक्षणों के लिए मजबूर किया जाता है, और जब मामला अदालत पहुँचता है तो उन्हें उन्हें डर लगता है. मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में स्कूल ऑफ जेंडर स्टडीज की अंजली दवे ने कहा, "बलात्कार को अब भी महिलाओं की शर्मिंदगी के बतौर पेश किया जाता है और इसपर बात करने में महिलाओं के सामने कई सामाजिक बाधाएं खड़ी रहती हैं."
भारत में अब लैंगिक हिंसा से निपटने के लिए कई कानून हैं जैसे कि आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013, यौन अपराधों से बाल सुरक्षा अधिनियम, और अगर पीड़ित दलित (पूर्व में "अस्पृश्य") या आदिवासी समुदाय से हैं तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम. समय के साथ कानूनी बदलाव प्रभावी हुए और 2015 (सबसे हालिया साल जिसके लिए आंकड़े उपलब्ध है) के अंत तक पुलिस के पास दर्ज हुए बलात्कार की शिकायतों की संख्या में 39 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई. 2012 में 24,923 मामलों के मुकाबले 2015 में 34,651 मामले दर्ज हुए. यह संभवतः अपने मामलों को अदालत तक ले जाने की उत्तरजीवियों की बढ़ती तत्परता को दिखाता है.
हालांकि, ह्यूमन राइट्स वॉच का अध्ययन यौन हिंसा के शिकार लोगों को न्याय दिलाने के उद्देश्य से बने कानूनों, प्रासंगिक नीतियों और दिशानिर्देशों को लागू करने में लगातार सामने आ रही कमियों को सामने रखता है. इस रिपोर्ट में 21 मामलों में- जिनमें 10 में घटना के समय लड़कियों की उम्र 18 साल से कम थी- गहन शोध, भारतीय संगठनों के शोध और ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा पीडितों, उनके परिवार के सदस्यों, अधिवक्ताओं, नागरिक समाज कार्यकर्ताओं, वकालत करनेवालों, डॉक्टरों, फॉरेंसिक विशेषज्ञों और सरकारी व पुलिस अधिकारियों के 65 साक्षात्कारों का इस्तेमाल करते हुए समस्या की व्यापकता का वर्णन किया गया है. साथ ही इस रिपोर्ट में पीड़ितों, उनके परिवार के सदस्यों, वकीलों, नागरिक समाज कार्यकर्ताओं, अधिवक्ताओं, डॉक्टरों, फॉरेंसिक विशेषज्ञों और सरकारी व पुलिस अधिकारियों से ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा किए गए 65 से अधिक साक्षात्कार शामिल हैं. रिपोर्ट में इन मामलों का इस्तेमाल करते हुए विस्तृत सिफारिश की गई है कि किसप्रकार अधिकारी यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि आपराधिक न्याय प्रणाली में पीड़ितों और उनके परिवारों से संवेदनशीलता, गरिमा के साथ और बिना भेदभाव के व्यवहार हो.
अपर्याप्त पुलिस कार्रवाई
भारतीय कानून में यह प्रावधान है कि यौन उत्पीड़न या यौन उत्पीड़न के प्रयास के मामलों में, प्रशिक्षित महिला पुलिस अधिकारी उत्तरजीवी की गवाही दर्ज करे, उसके बयान का वीडियो टेप तैयार करे और यथाशीघ्र न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दर्ज कराए. आपराधिक दंड संहिता में 2013 हुए संशोधनों ने पुलिस अधिकारियों द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज करना अनिवार्य बना दिया है, जो ऐसा करने में विफल रहते हैं उन्हें दो साल तक जेल की सजा हो सकती है.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि पुलिस हमेशा इन नियमों का पालन नहीं करती है. वे प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने में बाधा डालते हैं, जबकि पुलिस जांच शुरू करने के लिए यह पहला कदम है, खासकर यदि पीड़िता आर्थिक या सामाजिक रूप से हाशिए वाले समुदाय से आती हो. पुलिस जब-तब पीड़िता के परिवार पर "मामला निपटाने" या "समझौता" करने का दबाव डालती है, खासकर यदि अपराधी शक्तिशाली समुदाय का हो.
उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश राज्य के ललितपुर जिले में 22 वर्षीय बरखा और उसके पति पर 30 जनवरी, 2016 को उनके घर पर आधी रात के करीब उनके गांव के तीन लोगों ने हमला किया, पुलिस ने इसकी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया. बरखा ने कहा कि दो लोगों ने उसके पति को पीटा और उन्हें उठा कर ले गए और तीसरा, जो एक प्रभावशाली जाति से आता है, ने उसके साथ बलात्कार किया, उसे जातिसूचक गलियां दीं और पुलिस के पास जाने पर उसे जान से मारने की धमकी दी. बरखा बताती है कि पुलिस कार्रवाई करने में अनिच्छुक रही क्योंकि मुख्य आरोपी सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का स्थानीय नेता था. आखिरकार, जब 2 मार्च को बरखा अदालत पहुंची तो अदालत ने पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने और उचित कार्रवाई करने का आदेश दिया. हालांकि, एफआईआर दर्ज करने के लिए पुलिस ने और आठ महीने का समय लिया. इस बीच, बरखा और उसके पति को आरोपी और गांव के अन्य लोगों से लगातार मिल रही धमकियों और उत्पीड़न के बाद गांव से पलायन कर सैकड़ों मील दूर चले जाना पड़ा. बरखा कहती है कि उसने न्याय की आस छोड़ दी है:
हम इस तरह कब तक भागते रहेंगे? हम अपना परिवार, घर और गांव देखने में सक्षम नहीं हैं? पूरा परिवार बिखर गया है. पुलिस मामले की जांच नहीं करना चाहती. हम गांव में नहीं रह पाए क्योंकि वे [आरोपी] हमें मारने के लिए तैयार बैठे हैं और पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है. हम गांव के मुखिया के पास भी गए लेकिन उन्होंने भी हमारी नहीं सुनी. हमारा कोई नहीं है.
हालाँकि 2013 का संशोधन पुलिस द्वारा बलात्कार की शिकायत दर्ज करने में विफलता को अपराध करार देता है, लेकिन बरखा का मामला दर्ज करने से इनकार करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक दंड संहिता की धारा 66ए के तहत कोई कार्रवाई नहीं की गई. मजिस्ट्रेट भी पुलिस को जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मामला दायर करने का निर्देश देने में नाकाम रहे.
एक दूसरे मामले में, पुलिस ने बलात्कार की एक उत्तरजीवी और उसके पिता को अपने बयानों को बदलने के लिए कथित रूप से मनमाने ढंग से हिरासत में रखा, मारा- पीटा और धमकी दी. 23 वर्षीय काजल द्वारा 14 सितंबर, 2015 को सामूहिक बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने के बाद मध्य प्रदेश राज्य की पुलिस ने उसे एफआईआर की प्रति देने से इनकार कर दिया और अगले दिन वापस आने के लिए कहा ताकि मैजिस्ट्रेट के समक्ष उसका बयान दर्ज कराया जा सके. काजल ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि जब वे पुलिस स्टेशन पहुंचे, तो पुलिस ने उसके पिता को हवालात में डाल दिया और उसे अदालत से यह कहने के लिए कहा कि अपने पिता के कहने पर उसने बलात्कार की झूठी शिकायत दायर की थी. काजल ने कहा कि पुलिस ने कई सादे पन्नों पर उससे हस्ताक्षर भी कराए, उसे थप्पड़ मारा और डंडे से पिटाई की. पुलिस ने कथित तौर पर काजल के पिता को धमकी दी थी कि अगर उन्होंने इस बयान पर हस्ताक्षर नहीं किया कि उनकी बेटी ने झूठी शिकायत दर्ज की तो उन्हें झूठे आरोपों में गिरफ्तार कर लिया जाएगा. काजल ने बताया कि डर से उसने अदालत में झूठा बयान दिया. पुलिस ने दिसंबर 2015 में एक अंतिम जांच रिपोर्ट दायर की, जिसमें कहा गया कि काजल और उसके पिता ने मुख्य आरोपी के साथ जमीन विवाद के कारण झूठा मामला दायर किया. इसके बाद, काजल ने धमकी का जिक्र करते हुए एक अपील दायर की.
2013 के आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम में यौन अपराधों की परिभाषा का विस्तार करके ताक-झांक और पीछा करने जैसे नए अपराधों को शामिल कर लिया गया. हालांकि, 2014 में कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव द्वारा दिल्ली और मुंबई में किये अध्ययन से पता चलता है कि पुलिस के पास ऐसे अपराध बहुत कम दर्ज कराए जाते हैं और यहां तक कि जहां रिपोर्ट दर्ज भी की गई है, वहां भी ऐसे मामलों में पुलिस अक्सर एफआईआर दर्ज करने या इन अपराधों की ठीक से जांच करने में नाकाम रही है. कई माता-पिता ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि पुलिस शिकायत दर्ज करने के बाद उन्हें अपनी बेटियों की सुरक्षा की चिंता थी क्योंकि आरोपी को जमानत मिल गई और फिर उसने लड़कियों को धमकी दी. अक्सर, लड़कियां घर से बाहर की अपनी गतिविधियों पर खुद रोक लगा लेती हैं या माता-पिता उनकी गतिविधियों पर और ज्यादा प्रतिबंध लगा देते हैं.
अक्टूबर 2016 में, 16 वर्षीय मीना ने उत्तर प्रदेश राज्य के झांसी के एक गांव में उस पर हमला करने वाले तीन लोगों के खिलाफ पुलिस शिकायत दर्ज कराई, आरोपियों के परिवार ने मीना के परिवार को जान से मारने की धमकी देना शुरू कर दिया. मीना के माता-पिता ने सुरक्षा मांगते हुए पुलिस से अपील की. उन्होंने पुलिस अधीक्षक से भी गुहार लगाई. लेकिन पुलिस धमकी पर कोई कार्रवाई करने में विफल रही है और अभी तक मामला दर्ज नहीं किया है. इस बीच, मीना के माता-पिता उसकी सुरक्षा को लेकर इतने चिंतित हैं कि वे उसे घर से बाहर नहीं निकलने देते हैं, यहां तक कि स्कूल भी नहीं जाने देते हैं. उसकी मां ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया:
हमने अपनी बेटी की पढ़ाई रोक दी क्योंकि हमले के बाद हम उसे स्कूल भेजने से डर गए थे. यदि अभियुक्त जेल में हों, तो हमें उसे स्कूल में भेजने में डर नहीं लगेगा. लेकिन तब तक, हमें उसे अपने साथ सुरक्षित रखना होगा. हमने इस घटना की रिपोर्ट दर्ज कराई थी लेकिन अब हम अपना सम्मान खो चुके हैं.
कई उत्तर भारतीय राज्यों, जैसे हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब और राजस्थान में अनधिकृत ग्रामीण जातीय परिषद, जिसे खाप पंचायत कहा जाता है, यदि अभियुक्त प्रभावशाली जाति का हो, तो दलित या अन्य तथाकथित "निम्न जाति" के परिवारों पर आपराधिक मामला आगे नहीं बढ़ाने का दवाब डालते हैं. स्थानीय राजनेता और पुलिस अक्सर इन पंचायतों के फरमानों से सहानुभूति रखते हैं या उनसे आँखें मूँद लेते हैं, इस तरह वे अप्रत्यक्ष तौर पर हिंसा का समर्थन करते हैं. भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अप्रैल 2011 में उनके कार्यों को "पूर्णतः अवैध" करार दिए जाने के बावजूद ऐसा हो रहा है. हरियाणा के सभी जाट जातीय परिषदों के शक्तिशाली छतरी संगठन सर्व खाप पंचायत के प्रवक्ता सूबे सिंह समैन ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि बलात्कार के विरुद्ध बने कानूनों का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जा रहा है: "एक आदमी बिना सहमति के कभी महिला का बलात्कार नहीं कर सकता है. कभी-कभी सहमति से बने संबंध में चीजें बिगड़ जाती हैं और फिर उसे बलात्कार का नाम दे दिया जाता है."
हरियाणा की 30 वर्षीय दलित कल्पना ने 10 मार्च, 2015 को एफआईआर दर्ज करायी कि प्रभुत्वशाली जाट जाति के छह लोगों ने उसका सामूहिक बलात्कार किया. 28 मार्च को पुलिस ने अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत बलात्कार सहित अपहरण और हमले का आरोप दर्ज किया. हालांकि, फॉरेंसिक नतीजों के इंतजार में सुनवाई में देर हुई जो कि अपर्याप्त फॉरेंसिक प्रयोगशाला के कारण होने वाली आम समस्या है. कल्पना के परिवार ने कहा कि उन्हें खाप पंचायत द्वारा परेशान किया जाने लगा और धमकी दी जाने लगी. कल्पना अंततः अदालत में प्रतिपक्षी गवाह बन गई और सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया गया. वह और उसका परिवार गांव छोड़कर चले गए.
पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ करने में विफलता
भारत में डॉक्टर कानूनी तौर पर ऐसी महिलाओं और लड़कियों को प्राथमिक उपचार या चिकित्सीय इलाज़ मुहैया कराने के लिए बाध्य हैं, जो उनसे संपर्क करते हैं और बलात्कार की बात जाहिर करते हैं. मेडिकल जांच न केवल चिकित्सीय जरूरतें पूरा करती है, बल्कि संभावित फॉरेंसिक सबूत इकट्ठा करने में भी मदद करती है. भारतीय आपराधिक कानून के तहत, अभियोजन पक्ष केवल बलात्कार की उत्तरजीवी की गवाही पर बलात्कार के लिए दोषसिद्धि सुनिश्चित कर सकता है, जहां वह तथाकथित भौतिक विवरणों में अकाट्य और सुसंगत है. फॉरेंसिक पुष्टिकरण कानूनी रूप से प्रासंगिक माना जाता है लेकिन आवश्यक नहीं है. लेकिन व्यवहार में, चूँकि न्यायाधीश और पुलिस फॉरेंसिक साक्ष्य को बहुत महत्व देते हैं, इसीलिए मानकीकृत चिकित्सीय-कानूनी सबूत संग्रह और इसकी सीमाओं के बारे में जागरूकता आवश्यक हो जाता है.
2014 में, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने यौन हिंसा उत्तरजीवियों के लिए चिकित्सीय-कानूनी सेवा हेतु दिशानिर्देश जारी किए जिससे कि स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों द्वारा यौन उत्पीड़न उत्तरजीवियों की जांच और इलाज को मानकीकृत किया जा सके. ये दिशानिर्देश गोपनीयता, गरिमा, भयमुक्त माहौल बनाने और ज्ञात सहमति सम्बन्धी महिलाओं और बच्चों के अधिकार का सम्मान करने के लिए तैयार की गई प्रक्रियाओं को एकीकृत करते हैं.
ये दिशानिर्देश वैज्ञानिक चिकित्सीय जानकारी और प्रक्रियाएं भी मुहैया करते हैं जो उन प्रचलित मिथकों और बलात्कार से जुड़े अपमानजनक व्यवहारों को सुधारने में सहायता करती हैं जिन्हें आम चिकित्सीय-कानूनी व्यवहारों द्वारा बढ़ावा दिया गया है. यह "चिकित्सीय रूप से निर्दिष्ट" पीड़िता की आन्तरिक योनि जाँच तक सीमित करने वाले "टू फिंगर टेस्ट"(दो उँगलियों द्वारा परीक्षण) के प्रचलित तरीके को ख़त्म करता है और कहीं पीड़िता "सेक्स की आदी" तो नहीं, जैसे अवैज्ञानिक तथा अपमानजनक चरित्रहनन वाले चिकित्सीय निष्कर्ष के इस्तेमाल को ख़ारिज करता है.
भारत के संघीय ढांचे के तहत, स्वास्थ्य सेवा राज्य का विषय है, इसलिए राज्य सरकारें 2014 के दिशानिर्देशों को अपनाने के लिए कानूनी रूप से बाध्य नहीं हैं. अब तक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र, जहां ह्यूमन राइट्स वॉच ने उत्तरजीवियों और डॉक्टरों का साक्षात्कार किया है, सहित केवल 9 राज्यों ने इन दिशानिर्देशों को अपनाया है. लेकिन ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि चिकित्सीय पेशेवर, यहां तक कि दिशानिर्देश अपनाने वाले राज्यों में भी, हमेशा उनका पालन नहीं करते हैं. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में, ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि यौन हमले की उत्तरजीवियों की जांच करने वाले डॉक्टर उन्हें जाँच के बारे में पर्याप्त जानकारी देने में नाकाम रहे और उनके साथ डॉक्टरों के व्यवहार में संवेदनशीलता की कमी थी. इन राज्यों के छह मामलों में, डॉक्टरों ने जहाँ जांच के दौरान महिला पुलिसकर्मियों को उपस्थित रहने की अनुमति दे रखी थी, वहीँ वे कभी-कभी परिवार के सदस्य को अनुमति देने से मना कर देते थे.
मध्य प्रदेश में 18 वर्षीय दलित महिला पलक का अपहरण और बलात्कार किया गया. इस मामले में स्वास्थ्य पेशेवर ने पीड़िता पर दोष मढ़ा जिससे उसे और भी नुकसान पहुंचा. बेटी की चिकित्सा जांच के दौरान उसके साथ कमरे में मौजूद पलक की मां ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि डॉक्टर ने यह इंगित किया कि पलक झूठ बोल रही है और कि सेक्स सहमति से हुआ है:
डॉक्टर ने मेरी बेटी से कहा "यदि वे आप के साथ जबरदस्ती करते, तो आपके शरीर पर निशान होना चाहिए था, लेकिन आपके शरीर पर ऐसा कुछ नहीं है. आपने जरूर अपनी इच्छा से ऐसा किया होगा." जांच के बाद मेरी बेटी और ज्यादा डर गई.
मुंबई में नगरपालिका अस्पताल की एक वरिष्ठ प्रसूति रोग विशेषज्ञ, जिन्हें अक्सर अदालत में बयान देने के लिए बुलाया जाता है, ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि न्यायाधीश विशेष रूप से निचली अदालतों के न्यायाधीश, अक्सर चिकित्सीय-कानूनी दिशानिर्देशों से अनजान होते हैं और पुलिस के माँग-प्रपत्र में भी दिशा निर्देशों की अनदेखी की जाती है. डॉक्टर ने कहा, "पुलिस हमेशा हमसे पूछती है कि क्या जबरन [यौन] हमला हुआ है, क्या वीर्य मौजूद है. उन्हें प्रशिक्षित नहीं किया गया है और यही कारण है कि वे ऐसे प्रश्न पूछते हैं. पुलिस के लिए, यौन हमले का मतलब केवल (लिंग) प्रविष्टि है."
कई राज्यों के अपने दिशानिर्देश हैं, लेकिन वे अक्सर पुराने होते हैं और 2014 के केंद्र सरकार के दिशानिर्देशों जैसे विस्तृत और संवेदनशील नहीं होते हैं, इनमें ऐसी प्रक्रियाओं और चिकित्सा जांच की आवश्यकता होती है, जो जरूरी नहीं भी हो सकते हैं. उदाहरण के लिए, राजस्थान के अस्पतालों में इस्तेमाल किए जाने वाले मानक फॉर्म में एक ऐसा कॉलम अभी भी है जो योनिच्छद (हैमेन) की स्थिति के बारे में जानकारी मांगता है और डॉक्टर इसे भरने के लिए फिंगर टेस्ट करते हैं. जयपुर के एक अस्पताल में फॉरेंसिक साक्ष्य विभाग के एक मेडिकल कानूनविद ने कहा, "ये फॉर्म्स मेरे जन्म से पहले के हैं". हालांकि, हरियाणा राज्य सरकार ने 2014 के बेहतर दिशानिर्देशों से पहले 2012 में अपनी चिकित्सीय-कानूनी नियमावली जारी की थी, मगर अस्पताल हमेशा उन प्रोटोकॉल्स का पालन नहीं करते हैं. हिसार जिले के सरकारी अस्पताल में, ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि सरकार द्वारा जारी किए गए 17 पृष्ठों के विस्तृत फॉर्म के बजाय डॉक्टरों ने दो पृष्ठ वाले फॉर्म का इस्तेमाल किया. रेजिडेंट चिकित्सा अधिकारी ने कहा, "सरकारी प्रपत्र विस्तृत है. इंटरनेट हमेशा काम नहीं करता है, फिर कभी-कभी प्रिंटर काम नहीं करता, इसलिए हम ज्यादातर पुराने नियमावली फॉर्म का उपयोग करते हैं."
एक ओर जहाँ अधिकारी फॉरेंसिक साक्ष्यों के संग्रह को मानकीकृत करने के लिए दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए छोटे-छोटे कदम उठा रहे हैं, वहीँ स्वास्थ्य सेवा प्रणाली यौन हिंसा की उत्तरजीवियों को चिकित्सीय देखभाल और परामर्श प्रदान करने में काफी हद तक विफल रही है. इसमें सुरक्षित गर्भपात तक पहुँच और यौन संचारित बीमारियों के परीक्षण के लिए सलाह शामिल हैं. 2014 के दिशानिर्देश उत्तरजीवियों के लिए मनोसामाजिक देखभाल का खाका खींचते हुए कहते हैं कि स्वास्थ्य पेशेवरों को स्वयं फर्स्टलाइन (प्राथमिक) सेवाएं प्रदान करनी चाहिए या उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कुछ अन्य प्रशिक्षित व्यक्ति सुविधा केन्द्रों में हों जो ऐसी सेवाएं प्रदान करें. इसमें शामिल हैं- उत्तरजीवी के कल्याण पर ध्यान देना, उन्हें अपनी भावनाओं को व्यक्त करने और संकटकालीन परामर्श लेने के लिए प्रोत्साहित करना, सुरक्षा मूल्यांकन करना और सुरक्षा योजना बनाना तथा इलाज प्रक्रिया में परिवार और दोस्तों को शामिल करना. ह्यू ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा दस्तावेजीकरण किए गए बलात्कार के लगभग सभी मामलों में, महिलाओं और लड़कियों ने कहा कि परामर्श सहित उनकी स्वास्थ्य आवश्यकताओं पर लगभग कोई ध्यान नहीं दिया गया, जबकि यह स्पष्ट हो गया था कि उन्हें इसकी बहुत जरूरत थी.
काजल को उसके पति और परिवार ने छोड़ दिया था और सितंबर 2015 में सामूहिक बलात्कार का मामला दर्ज कराने के महीनों बाद उसे चिकित्सीय सहायता और परामर्श की अविलंब जरूरत थी. वह अपने माता-पिता के साथ रहने के लिए लौट आई, लेकिन जल्द ही वे अभियुक्तों की धमकियों के बाद जगह बदलने के लिए मजबूर हो गए. हालांकि, जांच करने वाले चिकित्सक ने परामर्श के लिए उसे किसी के पास नहीं भेजा था. काजल ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया:
मैंने सब कुछ खो दिया और सब मुझे दोषी ठहराते है. घटना के बाद एक महीने तक मैं घर के बाहर नहीं गई. मैं पड़ोसियों के ताने सुन-सुन के थक गई थी. मैंने खाना-पीना छोड़ दिया था, बस घर पर किसी पागल महिला की तरह पड़ी रहती थी. ऐसा लगता था जैसे मैंने अपना मानसिक संतुलन खो दिया हो.
प्रभावी कानूनी सहायता तक पहुंच का अभाव
दिल्ली की वरिष्ठ आपराधिक वकील रेबेका मैमन जॉन ने कहा कि सुनवाई की प्रक्रिया भयभीत करने वाली और भ्रामक हो सकती है और "पीड़िता को शर्मिंदा करने की कोशिशें अभी भी अदालतों में खूब होती हैं. हमें अदालती भाषा को बदलने के लिए काम करने की आवश्यकता है." प्रायः भारतीय सुनवाई प्रक्रियाओं में हानिकारक रूढ़ियां कायम हैं. अदालतों में न केवल न्यायाधीशों बल्कि बचाव पक्ष के वकीलों द्वारा भी यौन हमले की उत्तरजीवियों के प्रति अक्सर पक्षपाती और अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया जाता है. उत्तरजीवियों के लिए प्रभावी कानूनी सहायता इस तरह के पूर्वाग्रहों को दूर करने में मदद कर सकती है.
अपर्याप्त कानूनी सहायता विशेषकर उन उत्तरजीवियों के लिए चिंता का विषय है जो गरीब और हाशिए के समुदायों से आते हैं. 1994 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि यौन हमले की पीड़िताओं को कानूनी सहायता प्रदान की जानी चाहिए और सभी पुलिस स्टेशनों को कानूनी सहायता विकल्पों की सूची रखनी चाहिए. दिल्ली में यह सुनिश्चित करने के प्रयास हुए हैं - दिल्ली महिला आयोग एक रेप क्राइसिस सेल का संचालन करता है जो पुलिस स्टेशनों के साथ समन्वय करता है, हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि यह भी तदर्थ व्यवस्था है और पूरी तरह प्रभावी नहीं है – फिर भी देश के अन्य हिस्सों, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी व्यवस्था दुर्लभ है. ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जिन 21 मामलों का दस्तावेजीकरण किया गया है उनमें से किसी में भी पुलिस ने पीड़िता को कानूनी सहायता के उनके अधिकार के बारे में सूचित नहीं किया या कानूनी सहायता प्रदान नहीं की.
केंद्र सरकार ने महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों के तेज निपटारे के लिए पूरे देश में करीब 524 फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना की है. इनकी प्रभावकारिता को निर्धारित करने के लिए अभी तक कोई भी देशव्यापी अध्ययन मौजूद नहीं है. हालांकि,ऐसा प्रतीत होता है कि केवल फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना अपर्याप्त है: पीड़ितों को इस व्यवस्था में मार्गदर्शन करने में मदद के लिए कानूनी सहायता जैसे अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं पर समान रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए.
बच्चों से जुड़े मामलों में, कानून जांच और सुनवाई की पूरी प्रक्रिया के दौरान बच्चे की मदद करने के लिए सहयोगी व्यक्ति उपलब्ध कराता है. हालांकि, जैसा कि ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि इस संबंध में कार्यान्वयन की कमी है, जबकि बलात्कार की वयस्क उत्तरजीवियों के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है. दिल्ली स्टेट लीगल सर्विसेज अथॉरिटी की विशेष सचिव गीतांजली गोयल ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया, "बलात्कार के मामलों जैसे पोस्को (यौन अपराधों से बाल संरक्षण अधिनियम) में सहयोगी व्यक्ति उपलब्ध कराया जाना चाहिए. यह अनिवार्य नहीं है, लेकिन एक विकल्प होना चाहिए, क्योंकि पीड़ित को मामले की स्थिति, पुलिस जांच, क्या चार्जशीट दर्ज की गई, क्या अभियुक्त ने जमानत के लिए आवेदन कर दिया है जैसी बातों के बारे में भी जानकारी नहीं होती है."
समन्वित सहायता सेवाओं की कमी
महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ यौन हिंसा को रोकने और उसके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए भारत के विभिन्न मंत्रालयों और राज्य सरकारों के कार्यों के मार्गदर्शन के लिए कोई समग्र राष्ट्रीय कार्यक्रम नहीं है. नतीजतन, कार्यक्रमों की पैबन्दकारी की जाती है. और इन तदर्थ प्रयासों का उचित रूप से निरीक्षण नहीं किया जाता है क्योंकि यौन हिंसा सहित महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध हिंसा से सम्बंधित कानूनों के क्रियान्वयन और प्रभावकारिता का आकलन करने के लिए भारत में देशव्यापी निगरानी और मूल्यांकन का ढांचा नहीं है.
2013 में, केंद्र सरकार ने महिलाओं के निवारण, संरक्षण और पुनर्वास से जुड़े कार्यक्रमों के लिए निर्भया कोष की स्थापना की. 2013 से 2017 तक इसके लिए 3000 करोड़ रुपए आवंटित किए गए. दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबिलिटी और गैर-सरकारी संगठन जागो री की 2017 की एक रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि दो महत्वपूर्ण योजनाओं- 24 घंटे की महिला हेल्पलाइन और वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर्स- के लिए आवंटित निर्भया बजट का उपयोग योजना शुरू होने के तीन साल बाद 2015-16 में जाकर शुरू किया गया.
कोष के एक हिस्से के रूप में, केंद्र सरकार ने 2015 में केंद्रीय पीड़ित मुआवजा कोष स्थापित किया जिसके तहत बलात्कार पीड़ित को कम-से-कम 3 लाख रुपये मिलेंगे. हालांकि, हर राज्य की मुआवजा से सम्बंधित अपनी योजना है, प्रत्येक राज्य यौन हिंसा उत्तरजीवियों को मुआवजे में अलग-अलग राशि प्रदान करते हैं. यह व्यवस्था अप्रभावी है और उत्तरजीवियों को लंबा इंतजार करना पड़ता है या वे इस योजना का उपयोग करने में असमर्थ रहते हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जिन 21 मामलों का दस्तावेजीकरण किया गया है उनमें से केवल तीन उत्तरजीवियों को मुआवजा प्राप्त हुआ था. मुम्बई में महिलाओं के एक क्राइसिस सेंटर दिलासा की प्रभारी चित्रा जोशी ने कहा, "यदि यह योजना कागज पर ही रह जाती है, तो इसका क्या मतलब है?"
वन स्टॉप सेंटर योजना, पुलिस सहायता, कानूनी मदद, चिकित्सा और परामर्श सेवाएं प्रदान करने वाली एक एकीकृत सेवा है जो कि व्यवहार में अप्रभावी है. सरकार के मुताबिक, अगस्त 2017 तक देश भर में 151 केंद्र स्थापित किए गए, लेकिन ह्यूमन राइट्स वॉच और अन्य समूहों द्वारा एकत्रित वास्तविक साक्ष्य विभिन्न संबंधित विभागों और मंत्रालयों के बीच समन्वय की कमी को दर्शाते हैं. इन केंद्रों के बारे में जागरूकता भी बहुत कम है.
इसके अलावा, इस योजना में मौजूदा उन क्राइसिस-इंटरवेंशन सेंटर्स को एकीकृत नहीं किया गया है जो पहले से ही महिलाओं को सेवाएं प्रदान कर रहे हैं या देश के विभिन्न भागों में विकसित किए गए मॉडल्स की अच्छी कार्यप्रणाली पर आधारित हैं. और इसने लैंगिक हिंसा की उन पीड़ितों तक अपनी पहुंच को उच्चतम सीमा तक नहीं बढ़ाया है जो आम तौर पर अस्पतालों, पुलिस थानों और अदालतों तक पहुँचते हैं.
अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत भारत के दायित्व
भारत प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों का साझेदार है, यह संधि सरकार को यौन हिंसा उत्तरजीवियों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए बाध्य करती है. उत्पीड़न के शिकार लोगों की रक्षा करने में राज्य की विफलता स्वयं ही मानवाधिकारों का उल्लंघन हो सकती है.
मई 2017 में, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भारत की तीसरी व्यापक सामयिक समीक्षा के दौरान संयुक्त राष्ट्र के तीन दर्जन सदस्य देशों ने महिलाओं के खिलाफ हिंसा और भेदभाव के प्रति चिंताएं व्यक्त कीं और कुछ देशों ने विशेष रूप से भारत सरकार से कहा कि महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा के कृत्यों को दर्ज करने, उनकी जांच और उचित अभियोजन सुनिश्चित करने के लिए मौजूदा नीतियों और कानूनों को बेहतर ढंग से लागू किया जाए. कई देशों ने भारत से कहा कि वह महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर कन्वेंशन के वैकल्पिक मसविदा को मंजूरी दे जिससे कि संधि की निगरानी करने वाली समिति को भारत में व्यक्तियों या समूहों से शिकायतें प्राप्त करने और उन पर विचार करने की अनुमति मिल सके.
भारत सरकार ने महिलाओं के विरुद्ध हिंसा से निपटने वाले विशिष्ट कानूनों और नीतियों का हवाला दिया. हालांकि, कानूनों और संस्थाओं से परे, भारत में आम लोगों को शिक्षित करने और उनकी सोच बदलने, स्वीकृत संरक्षण को लागू करने और कानूनी सुरक्षा उपायों को सुनिश्चित करने के लिए ठोस सरकारी प्रयास की आवश्यकता है.
प्रमुख अनुशंसाएं
केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को चाहिए कि:
- यौन हिंसा उत्तरजीवियों की सहायता करने के लिए आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 और घोषित नीतियां लागू करें.
- यौन हिंसा के मामलों के उचित सार-संभाल के लिए पुलिस अधिकारियों, न्यायिक अधिकारियों और चिकित्सीय पेशेवरों को संवेदनशील बनाने के लिए नियमित प्रशिक्षण और रिफ्रेशर कोर्स सुनिश्चित करें.
- गवाह संरक्षण कानून बनाए, जिसमें उन महिलाओं और लड़कियों एवं उनके परिवारों का संरक्षण मिले, जो यौन हिंसा की आपराधिक शिकायत दर्ज करने पर प्रति-हिंसा का सामना करते हैं.
- स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के दिशानिर्देश और यौन हिंसा के उत्तरजी- वियों/पीड़ितों के चिकित्सीय-कानूनी देखभाल नियमावली को अपनाएं और लागू करें.
- यह सुनिश्चित करें कि वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर्स पूरी तरह सुसज्जित और सुलभ हों, इन केंद्रों के लिए निगरानी तंत्र की स्थापना करें, समय-समय पर जवाबदेही रिपोर्ट प्रकाशित करें और सुनिश्चित करें कि निर्भया कोष राशि का पारदर्शी रूप से वितरण हो.
- सार्वजनिक स्थानों को सुरक्षित और महिलाओं के लिए अधिक सुलभ बनाने हेतु निश्चित समय-सीमा के भीतर ठोस योजनाओं को विकसित और कार्यान्वित करने के लिए महिला अधिकार समूहों, नागरिक समाज संगठनों, शहरी योजनाकारों और अन्य लोगों के साथ काम करें.
पद्धति
इस रिपोर्ट में यौन अपराधों का नियमन करने वाले भारत के आपराधिक कानूनों- जैसा कि इनमें आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 और यौन अपराधों से बाल संरक्षण अधिनियम, 2012 के जरिए संशोधन किए गए-के कार्यान्वयन की जांच की गई है. हमने विशेषकर ग्रामीण इलाकों में और हाशिए के समुदायों के बीच इनके कार्यान्वयन पर ध्यान केन्द्रित किया है.
हालाँकि लड़के और पुरुष भी यौन हिंसा का सामना करते हैं, लेकिन यह रिपोर्ट महिलाओं और लड़कियों पर केंद्रित है क्योंकि उन्हें न्यूनाधिक रूप से निशाना बनाया जाता है. इसके अलावा, 2013 के कानून लैंगिक रूप से तटस्थ नहीं हैं और केवल महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों को ही संबोधित करते हैं. लड़कों को यौन अपराधों से बाल संरक्षण अधिनियम के तहत सुरक्षा दी गई है, लेकिन भारत में वयस्क पुरुषों को यौन हिंसा के लिए कानूनी सहारा औपनिवेशिक कालीन कानून के तहत मिला हुआ है, जो समलैंगिक वयस्कों के बीच सहमति से हुए सेक्स को अपराध ठहराता है. [1] हमने इस रिपोर्ट में लड़कों और पुरुषों की विशिष्ट चुनौतियों को शामिल नहीं किया है. ह्यूमन राइट्स वॉच विकलांग महिलाओं और लड़कियों के विशिष्ट मुद्दों पर अलग से काम कर रहा है.
हमने दिसंबर 2016 से अगस्त 2017 के बीच चार भारतीय राज्यों- हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में फील्ड रिसर्च (जमीनी अध्ययन) और साक्षात्कार किया. इन चार राज्यों को इसलिए चुना गया क्योंकि यहाँ से बड़ी संख्या में बलात्कार के मामले सामने आए हैं[2] और इन राज्यों में सशक्त स्थानीय गैर सरकारी संगठनों की मौजूदगी है जो कानूनी, चिकित्सीय और पुलिस दस्तावेजों तक पहुंच कायम करने में मददगार हो सकते हैं. नई दिल्ली और मुंबई में भी साक्षात्कार लिए गए.
गैर सरकारी संगठन जन साहस ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश राज्यों में यौन हमलों की उत्तरजीवियों और सुनवाई पूर्व और सुनवाई के दौरान, इन दोनों चरणों से संबंधित दस्तावेजों तक पहुँच सुनिश्चित करने में मदद की. हरियाणा में उत्तरजीवियों और उनके परिवारों के साथ साक्षात्कार उनके वकील की मदद से किया गया.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने इन राज्यों में 15 से भी अधिक उत्तरजीवियों और ज्यादातर बलात्कार जैसे यौन उत्पीड़न के शिकार लोगों के 25 परिजनों का साक्षात्कार किया. उनमें से कई लोगों का साक्षात्कार दिल्ली में हुआ जब वे वहां एक राष्ट्रीय परामर्श में अपने अनुभव साझा करने के आए थे. साक्षात्कारों के आधार पर, रिपोर्ट में ऐसे 21 मामलों की जांच की गई है जो न्याय एवं स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में संस्थागत बाधाओं और कानूनों व सरकारी नीतियों के कार्यान्वयन में कमियों को उजागर करते हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच के पास सम्बद्ध दस्तावेजों की प्रतियां मौजूद हैं. रिपोर्ट में दर्ज 21 मामलों में से करीब आधे में घटना के समय पीड़िता की उम्र 18 साल से कम थी.
इसके अलावा, ह्यूमन राइट्स वॉच ने इन हिस्सों में और मुंबई एवं दिल्ली में लैंगिक हिंसा पर काम करने वाले 15 से अधिक वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और अधिवक्ताओं के साथ बात की. साथ ही, ह्यूमन राइट्स वॉच ने छः डॉक्टरों और फॉरेंसिक विशेषज्ञों से भी बातचीत की. ह्यूमन राइट्स वॉच ने सात सेवारत पुलिस अधिकारियों समेत 12 सरकारी अधिकारियों का भी साक्षात्कार किया.
यौन हिंसा और न्याय हासिल करने की प्रक्रिया के अनुभवों को दोबारा बयान के सदमे से बचने के लिए ह्यूमन राइट्स वॉच ने उत्तरजीवियों और उनके परिवारों के साक्षात्कार से पहले सिविल सोसाइटी एक्टिविस्ट, सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और अधिवक्ताओं से जानकारी प्राप्त कर मामलों की जांच की और जहां हमारी पहुंच थी, हमने सम्बंधित दस्तावेजों की समीक्षा की.
आपराधिक शिकायत दर्ज करने और इस दिशा में प्रयास जारी रखने एवं चिकित्सीय जाँच और सेवा तक पहुंच से सम्बंधित उनके अनुभवों पर हमने ध्यान केंद्रित किया है. हमने उत्तरजीवी से बलात्कार के ब्योरे को फिर से बताने के लिए नहीं कहा.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने जिनका साक्षात्कार किया उन्हें कोई पारिश्रमिक या अन्य प्रलोभन नहीं दिया. कुछ मामलों में, भोजन और यात्रा खर्च के लिए भुगतान किया गया. सभी साक्षात्कार या तो हिंदी या फिर अंग्रेजी में हुए और ये उनकी पूरी सहमति से किए गए. यौन हमलों की सभी उत्तरजीवियों के नाम बदल दिए गए हैं और उनकी गोपनीयता और सुरक्षा के लिहाज से पहचान सम्बन्धी सभी जानकारी गुप्त रखी गई है.
साक्षात्कार के अलावा, यह रिपोर्ट सम्बद्ध और सुलभ सेकेंडरी (द्वितीयक) साहित्य पर भी आधारित है. ये साहित्य हैं: सरकारी आंकड़े, स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों की रिपोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के फैसले, और निपुण सक्सेना आदि बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य मामले में वकील इंदिरा जयसिंह एवं लॉयर्स कलेक्टिव द्वारा तैयार एमिकस ब्रीफ (न्यायलय मित्र सारपत्र).
शब्दावली
पारिभाषिक शब्द "बच्चा" 18 वर्ष से कम उम्र के किसी भी व्यक्ति को संदर्भित करता है जो कि अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत किए जाने वाले प्रयोग के अनुरूप है. "लड़की" शब्द 18 वर्ष से कम आयु की बच्चियों को संदर्भित करता है. पारिभाषिक शब्द "यौन अपराध" यौन प्रकृति के सभी अपराधों का वर्णन करने के लिए प्रयोग किया गया है जो भारतीय कानून के तहत अपराध हैं.
I. भारत में यौन हिंसा
विधायिका ने कानूनों में संशोधन कर जवाबदेही निभाई है लेकिन क्रियान्वयन का क्या होगा?
-कुमारी सैलजा, सांसद, सितंबर 2016
दिसंबर 2012 में, दिल्ली में 23 वर्षीय महिला ज्योति सिंह के सामूहिक बलात्कार और हत्या के बाद बड़े पैमाने पर देशव्यापी प्रदर्शन हुए और इसने यौन हिंसा का नियमन करने वाले भारत के अपर्याप्त आपराधिक कानूनों में सुधार के पक्ष में राजनीतिक आवेग पैदा कर दिया. [3] इसके परिणामस्वरूप, मौजूदा आपराधिक कानूनों को मजबूत करने के लिए संशोधन हुए और यौन अपराधों की नई श्रेणियां तय की गईं. उस समय, भारतीय दंड संहिता, आपराधिक दंड संहिता और साक्ष्य अधिनियम- जो कि यौन अपराधों से निपटने के लिए सामूहिक रूप से आपराधिक कानूनों की रीढ़ की हड्डी हैं- में सुधार के लिए कई सालों से चर्चा चल रही थी. आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013 में कानून के इन सभी तीन हिस्सों में संशोधन किया गया.
इन संशोधनों से पहले, भारत में यौन अपराधों को नियमित करने हेतु कई विधायी सुधार हुए. उदाहरण के लिए, भारत भर के अधिकार समूहों के साथ वर्षों के विचार-विमर्श के बाद, जून 2012 में भारत सरकार ने यौन अपराधों से बाल संरक्षण अधिनियम (पोस्को) बनाया, यह कानून बाल यौन शोषण से व्यापक तरीके निपटने के उद्देश्य से बनाया गया है.[4]
मौजूदा प्रचलित आंकड़े
कानून में बदलावों के बाद, गृह मंत्रालय में अवस्थित, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के कार्यालय के अनुसार, 2012 (24,923) के मुकाबले 2015 (34,651) में पुलिस में दर्ज की गई आपराधिक शिकायतों की संख्या में 39 प्रतिशत की वृद्धि हुई. [5] 2015 में दर्ज किए गए मामलों में, 34,771 बलात्कार पीड़ितों में 11,393 लड़कियां थीं. मार्च 2015 में, सरकार ने संसद में कहा कि 2013 से बलात्कार के मामलों की संख्या में "नाटकीय रूप से बढ़ोतरी" हुई है, ऐसा भारतीय दंड संहिता में इस संशोधन के बाद हुआ है कि बलात्कार की शिकायत के बाद अगर पुलिस अधिकारी प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज नहीं करता है तो यह दंडनीय अपराध होगा.[6]
कार्यकर्ताओं का कहना है कि ये आंकड़े अभी भी समस्या को पूरी तरह सामने नहीं रखते हैं. भारत ने अभी तक महिलाओं के खिलाफ अपराधों, जिसमें पृथक आंकड़ों पर आधारित यौन हिंसा शामिल हो, को दर्ज करने के लिए जनसंख्या आधारित सावधिक अध्ययन विकसित नहीं किया है.[7]
कलंक, पीड़ितों पर लांछना और जागरूकता की कमी
भले ही बलात्कार के लिए आपराधिक शिकायत दर्ज करने की बढ़ती प्रवृत्ति यह दर्शाती है कि चुप्पी की संस्कृति टूट रही है, भारत में अभी भी ढेर सारे लोग बहुत कारणों से यौन हिंसा की रिपोर्ट दर्ज कराने से डरते हैं. इन कारणों में शामिल हैं: कलंकित और शर्मिंदा किए जाने का डर, परिवार और दोस्तों से बदला लेने का डर और पीड़ितों या गवाहों के लिए बहुत कम सुरक्षा प्रदान करने वाली आपराधिक न्याय प्रणाली.
2013 के बाद, केंद्रीय और राज्य सरकारों द्वारा इस मुद्दे पर और अधिक जागरूकता फैलाने की कोशिशें हुई हैं और अधिक संवेदनशीलता से इनसे निपटने के प्रयास किए गए हैं. [8] हालांकि, पीड़िता को दोष देने की प्रवृत्ति अब भी जारी है, जिसमें अधिकार संपन्न लोगों जैसे राजनीतिज्ञों, पुलिस और यहां तक कि न्यायाधीशों द्वारा उनके पहनावे,, यौन इतिहास या व्यवहार के बारे में सवाल उठाए जाते हैं.
यौन हिंसा पर अधिकारियों की टिप्पणियों के उदाहरण
नीचे प्रमुख हस्तियों की टिप्पणियां दी गईं हैं. ये हस्तियां हैं: भारत भर के विभिन्न राजनीतिक दलों के राजनेता; वरिष्ठ पुलिस अधिकारी; महिला नेत्रियाँ; और महिला आयोग जैसे वैधानिक निकायों के अधिकारी जिन पर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी है. ये टिप्पणियां बताती हैं कि यौन हमलों के मामलों में अब भी भारत में पीड़िता को दोषी ठहराना कितनी मजबूती से जड़ जमाये हुए है. जब यह [एक वाहन] घर के गराज में खड़ी है, तब दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है, सही है? ... इसी तरह, पुराने समय में, जब महिलाएं गृहिणी थीं, वे भेदभाव को छोड़कर सभी तरह के अत्याचारों से सुरक्षित थीं,... जब वे समाज के संपर्क में आईं तब उनकी छेड़छाड़, उत्पीड़न, अत्याचार, बलात्कार और अपहरण के शिकार होने का खतरा बढ़ गया. क्या ऐसा नहीं है? यदि वे घर से न निकलें, तो ऐसा नहीं होगा. वे पश्चिम के लोगों की नक़ल करने की कोशिश करते हैं, न केवल सोच में, बल्कि पहनावे में भी. कुछ लड़कियों को परेशान किया जाता है, ये चीजें हो जाती हैं. लड़के लड़के हैं, वे गलतियां करते हैं. ऐसी घटनाएं [बलात्कार] जानबूझकर नहीं होती हैं. ऐसी घटनाएं दुर्घटनावश होती हैं.
महिला के कपड़ों, उसके व्यवहार और अनुचित स्थानों पर उसकी उपस्थिति के कारण भी बलात्कार होते हैं. - आशा मिरजे, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी नेत्री और राज्य महिला आयोग सदस्य, महाराष्ट्र, जनवरी 2014[13] महिलाएं अपना शरीर दिखाती हैं और विभिन्न अश्लील गतिविधियों में लिप्त रहती हैं. महिलाएं इससे अनजान हैं कि इनसे [उनकी हरकतों से] क्या सन्देश जाता है.
महिलाओं को उन पुरुषों के साथ बाहर नहीं जाना चाहिए, जो रिश्तेदार नहीं हैं. रात में ऐसे पुरुषों के साथ घूमने की क्या जरुरत है जो रिश्तेदार नहीं हैं? इसे रोका जाना चाहिए. पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव की वजह से ऐसी घटनाएं [जैसे कि दिल्ली में सामूहिक बलात्कार ] होती हैं. भारत ने आधी रात को स्वतंत्रता प्राप्त की थी, इसका मतलब यह नहीं है कि महिलाएं अंधेरे के बाद बाहर निकल सकती हैं. - बोत्सा सत्यनारायण, कांग्रेस पार्टी, आंध्र प्रदेश राज्य, दिसंबर 2012[16] |
न्यायपालिका भी ऐसी हानिकारक रूढ़ियों से मुक्त नहीं है. उदाहरण के लिए, पूरे देश के उच्च न्यायालयों के 45 फैसलों की जांच करने वाले 2016 के एक अध्ययन में यह उल्लेख है कि कई जजों ने बलात्कार को महिला की शारीरिक गरिमा और अखंडता के उल्लंघन के रूप में दर्ज करने की जगह ऐसा अपराध बताना जारी रखा है जो महिला को "मनुष्यत्व के गुण से वंचित" कर देता है, उसके व्यक्तित्व को नष्ट कर देता है, या उसे कलंकित कर उसकी शादी की संभावनाओं को समाप्त कर देता है.[17] राजस्थान के भरतपुर के साधना मामले में, मजिस्ट्रेट ने आपराधिक दंड संहिता के तहत उसका बयान को दर्ज करते हुए, उससे ऐसे सवाल पूछे जिससे वह डर गई. साधना ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया:
महिला मजिस्ट्रेट ने मुझसे पूछा कि क्या आरोपी के साथ मेरे संबंध थे. उन्होंने कहा, "आप सभी महिलाएं यहाँ इसी तरह आती हैं, उसके साथ आपकी जरूर सेटिंग [पहले से सम्बन्ध] होगी."[18]
पीड़ित सहायता सेवाओं का अभाव
भारत में ऐसी कोई भी सरकारी सहायता सेवा नहीं है जहां महिलाएं, पुरुष और बच्चे अपने खिलाफ हुई यौन या अन्य प्रकार की हिंसा की रिपोर्ट दर्ज कर सकें और आपराधिक शिकायत दर्ज करने के फैसला के बारे में और इसके दुष्प्रभावों से निपटने के लिए सहायता प्राप्त कर सकें. कई महिलाएं बलात्कार की रिपोर्ट करने से डरती हैं क्योंकि उन्हें डर लगता है कि न केवल पुलिस बल्कि उनके परिवार के सदस्य भी उनका विश्वास नहीं करेंगे. अक्सर, महिलाओं को घर और बाहर समान रूप से कलंकित होने का सामना करना पड़ता है. विशेष रूप से बाल यौन उत्पीड़न के मामलों में, जहां उत्पीड़क अक्सर परिवार का ही सदस्य होता है. भरोसेमंद सहायता के अभाव में बच्चों के लिए उत्पीड़न की रिपोर्ट करना बेहद कठिन है.[19]
ह्यूमन राइट्स वॉच के अनुसंधान के चार उदाहरण पीड़ितों द्वारा पुलिस में आपराधिक शिकायत दर्ज कराने से पहले और बाद सहायता सेवाओं की महत्वपूर्ण आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं. मध्य प्रदेश राज्य के उज्जैन की 40 वर्षीय राशि ने कहा कि उसके गांव में एक पड़ोसी ने उसका बलात्कार किया. उसने अपने पति को यह बात बताई और दोनों ने इसे पुलिस में दर्ज कराने का फैसला किया.[20] लेकिन राशि ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि इसके महीनों बाद उसे घर पर और गांव में शर्मिंदा किया गया और दोषी ठहराया गया:
बलात्कार के बाद, मेरे पति ने मेरे साथ मारपीट शुरू कर दी. उसने कहा "जाओ उसके साथ [अभियुक्त] रहो." एक दिन मेरे बेटे ने मेरे पति से कहा "तुम उसे मार क्यों नहीं डालते? उसके कारण, हम गांव में अपनी इज्ज़त खो चुके हैं." लोगों ने उसके दिमाग में इतना फितूर भर दिया था कि उसने इसे मेरे ऊपर उड़ेल दिया.[21]
मध्य प्रदेश के नीमच की 23 वर्षीय काजल ने कहा कि उसके सामूहिक बलात्कार और इसकी पुलिस शिकायत दर्ज कराने के बाद पति ने उसे छोड़ दिया और गांव वालों ने उसे और उसके माता-पिता को गांव से बाहर निकाल दिया:
मेरी सास ने कहा, "अगर तुम यहां रहना चाहती हो, तो खेतों में रहो, घर में मत घुसो." मैं उसी गांव में अपने माता-पिता के साथ चली गई. लेकिन पड़ोसी हमें ताना मारते थे और आरोपी पुरुष के परिवार वाले बार-बार आकर समझौता नहीं करने पर हमें जान से मारने की धमकी देते थे. गांव में सभी ने मुझे दोषी ठहराया और हमें गाँव छोड़ने की धमकी दी. हम इतना डर गए कि गांव छोड़ दिया.[22]
28 वर्षीय साधना, तीन महीने की गर्भवती थी जब राजस्थान राज्य के भरतपुर के एक गांव में उसका बलात्कार किया गया. उसने कहा कि उसके गांव में कई लोगों ने मुझ पर उस तथाकथित ओझा-गुणी के साथ अवैध संबंध रखने का आरोप लगाया, जिस पर उसने बलात्कार का आरोप लगाया था:
मैं घर से बाहर निकलने में संकोच करती हूं, डर लगता है कि कोई कुछ कह देगा. गांव में कोई भी मुझसे बात नहीं करता. लेकिन हम क्या कर सकते हैं? हमें गांव में ही रहना है. अगर वह निर्दोष साबित हो जाता है, तो मेरे ऊपर और भी दोष मढ़ा जाएगा. गांव वाले कहेंगे, "देखा, हम जानते थे कि उसने झूठ बोला है, उसका चरित्र ठीक नहीं है."[23]
मध्य प्रदेश की दलित महिला पलक का 18 साल की उम्र में कथित अपहरण और बलात्कार किया गया. उसके माता-पिता ने उसका स्कूल छुडवा दिया और डर और कलंक के कारण किसी दूसरे गांव में उसकी शादी कर दी. पलक और उसके माता-पिता ने इस डर से पलक के पति या उसके परिवार को बलात्कार के बारे में नहीं बताया कि वे उसे दोष देंगे और स्वीकार नहीं करेंगे.[24]
लैंगिक हिंसा और बच्चों के खिलाफहोने वाले यौन अपराधों की रोकथाम
कुछ भारतीय नागरिक समाज संगठनों ने पिछले कुछ सालों में लड़कियों और महिलाओं के लिए सार्वजनिक स्थान सुरक्षित बनाने की मुहिम का नेतृत्व किया है.[25] सुरक्षा मामलों में कई कारकों का ध्यान रखा जाता है, इन कारकों में शामिल हैं- प्रकाश व्यवस्था, तनावमुक्त होकर टहलने की क्षमता, उस स्थान पर मौजूद लोगों की लैंगिक विविधता और सुरक्षा या पुलिस तक आसान पहुंच.[26]
भारत में महिला अधिकार समूह भी, अंतरराष्ट्रीय आंदोलनों और संगठनों के सहयोग से, सार्वजनिक सुरक्षा बढ़ाने के नूतन तरीके विकसित कर रहे हैं. मिसाल के तौर पर, व्हाई लॉइटर नामक एक अखिल भारत आंदोलन युवा महिलाओं को एक साथ लाता है जो अपनी गतिविधि की स्वतंत्रता पर जोर देते हुए दिन और रात के दौरान सड़कों पर चलती हैं या साइकिल चलाती हैं, या पार्कों में बैठती हैं.[27] समूह ने तकनीकी उपकरण भी इजाद किये हैं. उदाहरण के लिए, मोबाइल-आधारित ऐप सेफ्टी पिन द्वारा महिलाओं से जानकारी इकट्ठा कर सुरक्षित स्थानों के बारे में बताया जाता है.[28] सेफ्टी पिन की सह-संस्थापक कल्पना विश्वनाथ ने कहा, "यह सिर्फ अधिसंरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) नहीं बल्कि सार्वजनिक स्थानों की बनावट और उनके सामाजिक उपयोग से भी जुड़ा है. अभी, सार्वजनिक स्थान केवल कारों के लिए डिज़ाइन किए गए हैं. इसे बदलना होगा."[29]
2015 में, भारत सरकार ने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम "स्मार्ट सिटीज" मिशन शुरू किया जो पूरे भारत में मॉडल शहरों का निर्माण करेगा. हालांकि, अभी तक महिलाओं की सुरक्षा को शहर के "स्मार्ट" होने का एक मुख्य आधार बनाया जाना शेष है. अक्सर, जब सरकार महिलाओं की सुरक्षा की बात करती है, तो वह ज्यादा-से-ज्यादा क्लोज्ड सर्किट टेलीविजन (सीसीटीवी) कैमरे लगाती है. विश्वनाथ ने कहा, "स्मार्ट शहरों के हिस्से के रूप में सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा को संबोधित करने का अवसर है, लेकिन अभी तक हमने ऐसा नहीं देखा है."[30]
भारत में उम्र-सापेक्ष यौन शिक्षा के लिए ऐसा कोई अनिवार्य कार्यक्रम नहीं है जो सभी बच्चों, विशेष रूप से स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ रहे या उससे बाहर किशोरों को आच्छादित करता हो. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुम्बई में स्कूल ऑफ़ जेंडर स्टडीज की अंजलि दवे ने कहा, "कोई भी सरकारी कार्यक्रम नहीं है जिसका उद्देश्य पुरुषों की सोच बदलना हो. हम कभी भी पुरुषों को जोड़ने के तरीकों के बारे में बात नहीं करते हैं."[31] कुछ स्थानीय गैर-सरकारी संगठन इस विशाल खाई को भरने का प्रयास कर रहे हैं.[32]
महिलाओं के खिलाफ हिंसा रोकने के प्रयासों से शिक्षा और स्वच्छता जैसे बड़े विकास लक्ष्यों को भी बढ़ावा दिया जा सकता है. उदाहरण के लिए, ह्यूमन राइट्स वॉच के शोध में यह बात सामने आई है कि[33] महिलाएं तब विशेष रूप से यौन हिंसा और बलात्कार सहित हिंसा का शिकार होती हैं, जब वे घर पर स्वच्छता सुविधाओं की कमी के कारण खेतों या जंगलों में शौच के लिए जाती हैं.[34] ऐसे मामले की रोकथम के लिए घरों में और सामुदायिक स्तर पर शौचालयों का निर्माण करना होगा, जो खुले में शौच का भी अंत करेगा.[35] इसी तरह, जिन माता-पिता को लड़कियों की सुरक्षा का डर है, प्रभावी सुरक्षा से वे किशोर लड़कियों को स्कूल भेजना बंद नहीं करेंगे.
2012-2017 के लिए भारत सरकार की 12वीं पंचवर्षीय योजना का एक लक्ष्य महिला सुरक्षा, उनकी गतिशीलता और सार्वजनिक सेवाओं तक उनकी पहुंच में सुधार लाना था. हालांकि, केंद्रीय और राज्य सरकारों ने अभी तक इन प्रतिबद्धताओं को लागू करने के लिए कोई व्यवस्थित प्रयास नहीं किया है. इसके विपरीत, भारतीय जनता पार्टी शासित उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे कुछ राज्यों ने एंटी-रोमियो दस्ते जैसे अदूरदर्शी और प्रतिकूल कार्यक्रमों की शुरुआत की है, जो कि पुलिस द्वारा समर्थित निगरानी कार्रवाई है. लेकिन आम तौर पर, ये दस्ते नैतिक पुलिस का काम करते हैं और युवा जोड़ों को परेशान करते हैं, इससे महिलाओं की सुरक्षा सम्बन्धी समस्याएं और जटिल हो जाती हैं.
II. अपर्याप्त पुलिसकार्रवाई
पुलिस ने मुझे आरोपी से कुछ पैसे लेने और मामले को ख़त्म करने के लिए कहा. जब मैंने समझौता करने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने मुझे गाली दी और कहा, "यदि तुम समझौता नहीं करोगी तो हम तुम्हें हवालात में डाल देंगे."
- बलात्कार उत्तरजीवी मालिनी (बदला हुआ नाम), यह बताते हुए कि जब वह अपने बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने गई तो क्या हुआ था, हरियाणा, मार्च 2017
पुलिस जवाबदेही को सुधारने के उद्देश्य से कानून में किए गए महत्वपूर्ण बदलावों के बावजूद, पुलिस की उदासीनता, पीड़िता पर दोष मढ़ने और पुलिस द्वारा शक्तियों के अत्यधिक दुरुपयोग के कारण बलात्कार और यौन हिंसा के अन्य कृत्यों की जांच में बाधा आती है.[36] आर्थिक और सामाजिक रूप से हाशिए के समुदायों के पीड़ित ऐसी पुलिस उदासीनता या दुर्व्यवहार का ज्यादा शिकार होते हैं. जहां पीड़ित पुलिस को खुद ही अपराधी बताते हैं, उन मामलों में मानवाधिकार रक्षक और पत्रकारों के उत्पीड़न और उनको धमकी देने के साथ, प्रतिघात और दण्डमुक्ति के मामले सामने आते हैं.[37]
राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा और उत्तर प्रदेश (नीचे विस्तार से वर्णित) में ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा अध्ययन किए गए कई मामलों में पुलिस न केवल तुरंत शिकायत दर्ज करने और उनकी जांच करने के अपने आधिकारिक कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रही है, बल्कि उसने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया, महिलाओं और उनके परिवारों को बलात्कार की शिकायतों को वापस लेने या समझौता करने के लिए धमकाया.[38]
आपराधिक शिकायत और जांच के नियमन की कानूनी प्रक्रिया
प्रथम सूचना रिपोर्ट
यौन अपराध पीड़ित, उसका परिवार या अपराध के बारे में जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति पुलिस के पास शिकायत दर्ज करा सकता है. पुलिस को इस शिकायत को लिखित रूप में दर्ज करना चाहिए - यह एक दस्तावेज है जिसे प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) कहा जाता है. एफआईआर दर्ज होने के बाद ही पुलिस जांच शुरू हो सकती है. एफआईआर की एक प्रतिलिपि सूचक को निःशुल्क दी जानी चाहिए. सूचक देश में कहीं भी किसी भी थाने में प्राथमिकी दर्ज करा सकता है. पुलिस इसके बाद एफआईआर को उस पुलिस स्टेशन के पास स्थानांतरित करती है, जिसके अधिकार क्षेत्र वाले भौगौलिक इलाके में अपराध हुआ है.[39]
अगर पीड़ित खुद सूचक है, तो महिला पुलिस अधिकारी या कोई भी महिला अधिकारी को उसका बयान, बयान की वीडियोग्राफी सहित, दर्ज करना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दर्ज कराना चाहिए.[40] पुलिस के समक्ष बलात्कार के बारे में अपना बयान दर्ज कराते समय, लड़कियों और महिलाओं को यह अधिकार है कि जहां कहीं भी संभव हो महिला पुलिस अधिकारी, उनका बयान ऐसी जगह पर दर्ज करे जिसे वे सुरक्षित मानती हों.[41]
यौन अपराधों के लिए प्राथमिकी दर्ज करने से पहले पुलिस को "प्रारंभिक जांच" नहीं करनी चाहिए[42] क्योंकि "सूचना का भरोसेमंद होना, उसकी वास्तविकता और विश्वसनीयता" एफआईआर दर्ज करने की "पूर्व शर्त" नहीं है.[43] "असामान्य देरी" होने पर प्रारंभिक पूछताछ करने के लिए पुलिस के पास केवल एक छोटा सा विवेकाधिकार- सात दिन की अवधि- होता है, यानी जब सूचक कथित अपराध के तीन माह या उससे ज्यादा समय के बाद "बिना संतोषजनक कारण बताए" पुलिस को यौन हिंसा से सम्बंधित पहली रिपोर्ट दर्ज कराती है.[44]
अनुसंधान
अनुसंधान के दौरान, पुलिस की सभी कार्रवाइयों को रोज़ाना पुलिस स्टेशन की जनरल डायरी में दर्ज किया जाना चाहिए.[45] अनुसंधान "अनावश्यक देरी" के बिना पूरा किया जानी चाहिए[46] और बच्चों के बलात्कार के मामलों में, एफआईआर दर्ज होने के "तीन महीने के भीतर यह पूरा किया जा सकता है".[47]
अनुसंधान पूरा करने के बाद, पुलिस को अदालत में अंतिम रिपोर्ट सुपुर्द करनी चाहिए. सबूतों के आधार पर, अंतिम रिपोर्ट या तो चार्जशीट (अभियुक्त के विरुद्ध अपराधों और साक्ष्य को बताते हुए) या मामले को बंद करने वाली रिपोर्ट (आमतौर पर जिसे क्लोजर रिपोर्ट के रूप में जाना जाता है) हो सकती है.[48] बच्चों या उनके प्रतिनिधियों सहित शिकायतकर्ताओं को अंतिम रिपोर्ट की प्रति प्राप्त करने का अधिकार है.[49] पुलिस द्वारा मामले को बंद कर दिए जाने पर न्यायाधीश सूचक को नोटिस भेजते हैं और उन्हें रिपोर्ट स्वीकार करने से पहले एक विरोध याचिका दायर करने का मौका देते हैं या पुन: जांच का आदेश देते हैं.[50] पुलिस और निचली अदालतें बलात्कार के मामलों में "समझौता" नहीं करा सकतीं.[51]
जमानत
यौन अपराध के मामलों में, पुलिस अभियुक्त को खुद जमानत देकर रिहा नहीं कर सकती.[52] केवल फ़ौजदारी अदालत को कुछ शर्तों के तहत आरोपी को जमानत पर रिहा करने का अधिकार है.[53]
पुलिस के खिलाफ आपराधिक दंड
कानून ने पुलिस द्वारा बलात्कार की शिकायत दर्ज करने में विफलता को अपराध माना है.[54]
प्राथमिकी दर्ज करने में बाधा डालने, देरी करनेया दर्ज करने से इनकार करने में पुलिस की कोताही
ह्यूमन राइट्स वॉच ने जिन राज्यों में अध्ययन किया वहां उसने ऐसे कई उदाहरण देखे जहां पुलिस स्पष्ट क़ानूनी बाध्यता के बाबजूद उदासीन रही या उसने इस मामले में समझौता करने के लिए पीड़ित के परिवार पर दबाव डाला, विशेषकर जब कथित अपराधी शक्तिशाली समुदाय का था.
हमने जिन 21 मामलों की जांच की, उनमें महिलाओं, लड़कियों और उनके परिवारों के साथ हुई बातचीत के आधार पर, ह्यूमन राइट्स वॉच ने यह भी पाया कि पुलिस अक्सर प्रक्रियाओं से या तो अनजान थी या उसने सीधे-सीधे इनकी अनदेखी की, विशेष रूप से नई प्रक्रियाओं के मामले में जिन्हें 2012 और 2013 में लागू किया गया है, और जो महिलाओं और बच्चों की सहायता करने के लिए बनी हैं. पुलिस ने पीड़ितों और उनके परिवारों को मुआवजा और नि:शुल्क कानूनी सहायता से संबंधित प्रावधानों के बारे में शायद ही कभी जानकारी दी और अक्सर बाल कल्याण समितियों को सूचित करने में विफल रही. इसका एक कारण यह है कि सरकार के परिपत्र और दिशानिर्देश गांवों और छोटे शहरों के पुलिसकर्मियों तक नहीं पहुंचते हैं.
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मालिनी, हरियाणा
हरियाणा की तलाकशुदा 28 वर्षीय मालिनी 2 मार्च, 2017 को यह शिकायत दर्ज कराने के लिए जिंद जिले के एक पुलिस स्टेशन गई थीं कि उस दिन उनके पूर्व पति के भाई ने उनके साथ बलात्कार किया.[55] तलाक के बाद, मालिनी अपने माता-पिता और बेटे के साथ रहती थी. लेकिन पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने में छह दिन लगाए और मालिनी को चिकित्सीय-कानूनी जांच के लिए ले गए, इस देरी से संभावित महत्वपूर्ण साक्ष्य नष्ट हो गए.[56] मालिनी ने कहा कि पुलिस ने उस पर समझौता करने का दबाव डाला:
पुलिस ने मुझे आरोपी से कुछ पैसे लेने और मामले को ख़त्म करने को कहा. समझौता करने से इनकार करने पर उन्होंने मुझे गली दी और कहा, "यदि तुम समझौता नहीं करोगी तो हम तुम्हें हवालात में डाल देंगे." जब तक मुझे एफआईआर की प्रति नहीं मिली, मैं हर दिन पुलिस थाने जाती रही.[57]
पुलिस ने अंततः बलात्कार, हमला करने के मकसद से जबरन घुसने और आपराधिक धमकी देने सम्बन्धी एफआईआर दर्ज की, लेकिन मालिनी ने कहा कि जांच की बजाय पुलिस समझौता करने को मजबूर करने के लिए उसे थाने बुलाती रही.[58] यह रिपोर्ट लिखे जाने तक, पुलिस ने चार्जशीट दाखिल या अपराधी को गिरफ्तार नहीं किया था.
लीला, राजस्थान
1 अप्रैल, 2016 को 15 वर्षीय लीला मृत पाई गई. राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले के एक गांव में उसका शव पेड़ से लटका मिला. लीला के माता-पिता 18 अप्रैल को लीला को उसकी दादी के साथ छोड़कर गांव से बाहर गए थे, लेकिन उसी रात एक पड़ोसी से फोन पर लीला की गुमशुदगी की खबर मिलने पर वे तुरंत लौट आए. वे रातभर उसे ढूंढ नहीं पाए, सुबह उन्हें उसकी लाश मिली. पुलिस ने कहा कि यह आत्महत्या है. हालांकि, उसके माता-पिता का मानना है कि लीला का संभवतः बलात्कार किया गया और फिर हत्या कर दी गई. उसकी मां ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया:
जब हमने उसका शरीर पेड़ से लटकता हुए पाया तो उसके शरीर पर अंडरवियर नहीं था, जबकि वह हमेशा इसे पहनती थी. उसके पेट का निचला हिस्सा सूजा हुआ था और उसकी पीठ पर खरोंच थी.[59]
लीला के पिता ने कहा कि जिस ऊँचाई पर वह पाई गई, उस पेड़ पर वहां तक चढ़कर वह फांसी नहीं लगा सकती थी.[60] 24 अप्रैल को, लीला के पिता ने अपनी बेटी की मौत की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी को पत्र लिखकर उनसे घटना को हत्या मानकर जांच करने का आग्रह किया. उन्होंने आरोप लगाया कि गांव के कुछ लोगों ने उसे मार डाला है, जो एक साल से उसका पीछा कर रहे थे.[61] लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई.
मई में, उन्होंने मुख्यमंत्री, राज्य के गृह मंत्री, पुलिस महानिरीक्षक, पुलिस उप-महानिरीक्षक और प्रतापगढ़ पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखकर उनसे पुलिस को यह निर्देश देने का आग्रह किया कि वह मामले की जांच हत्या के मामले की तरह करे न कि आत्महत्या मानकर.[62] 3 जून को, लीला के पिता ने अंततः अदालत से संपर्क किया और मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट से अपनी बेटी की मौत की जांच का आदेश देने की दरख्वास्त की.[63] इस बीच, जून में राज्य मानवाधिकार आयोग के सवाल के जवाब में, पुलिस अधीक्षक ने कहा कि पुलिस जांच और शव परीक्षा रिपोर्ट के आधार पर लीला ने आत्महत्या की थी.[64] शव परीक्षा से यह बात सामने आई कि फांसी से दम घुटने के कारण लीला की मौत हुई.[65]
जुलाई में, अदालत के निर्देश के बाद, पुलिस ने आखिरकार परिवार द्वारा नामित चार लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया. [66] सितंबर में, लीला के पिता ने पुलिस अधीक्षक को फिर से पत्र लिखा, यह आरोप लगाते हुए कि पुलिस अधिकारी मामले की जांच और आरोप पत्र दाखिल करने के बजाय आरोपी के साथ समझौता करने के लिए दवाब बना रहे हैं. उन्होंने आरोपी द्वारा डराने-धमकाने की भी शिकायत दर्ज कराई और लीला की मौत की उचित जांच की मांग की. [67] रिपोर्ट लिखे जाने तक, पुलिस ने आगे कोई कार्रवाई नहीं की थी.
समीना, राजस्थान
भरतपुर जिले के एक गांव की 25 वर्षीय मुस्लिम महिला समीना, 14 मार्च, 2016 को अपने पति और उनके परिवार के सदस्यों के साथ अपने सामूहिक बलात्कार की घटना के कुछ घंटों बाद उसकी शिकायत दर्ज कराने थाने गई. समीना ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि वह अपनी ननद के साथ जंगल में शौच करने के लिए गई थी. वह अपने छह माह के बेटे को भी साथ लेकर गई थी. गांव के पांच पुरुष ने उन्हें टोका. उनकी ननद बचने में कामयाब रही लेकिन पुरुषों ने उसके बच्चे को बंधक बना लिया और शोर मचाने पर उसके बच्चे को जान से मारने की धमकी दी.[68]
समीना और उसके परिवार ने शिकायत की कि पुलिस ने एफआईआर दर्ज नहीं की. समीना के परिवार के पुलिस अधीक्षक से संपर्क करने के बाद ही पुलिस ने घटना के 11 दिन बाद 25 मार्च को एफआईआर दर्ज की.
इसके बाद, परिवार ने जुलाई 2016 में कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों, राज्य के गृह मंत्री और राज्य मानवाधिकार आयोग को इस शिकायत के साथ पत्र लिखा कि आरोपी उन्हें मामला वापस लेने के लिए धमकियां दे रहे हैं, और उन्होंने मामले की जांच वरिष्ठ पुलिस अधिकारी या किसी अन्य अधिकारी द्वारा कराए जाने की अपील की.[69] अक्टूबर 2016 में, पुलिस ने शील भंग करने के मकसद और यौन उत्पीड़न के लिए एक महिला पर हमला करने के लिए पांच आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट दायर किया, लेकिन पुलिस ने बलात्कार से इंकार किया.[70] पुलिस ने कहा कि उसने एक अभियुक्त के मोबाइल फोन से बरामद एक वीडियो क्लिप की जांच की, जिसमें यह साबित हुआ कि पुरुषों ने समीना और उसकी ननद को परेशान किया था, और यहां तक कि समीना के बच्चे को भी डराया गया था, लेकिन वीडियो बलात्कार नहीं दिखाता है. चार्जशीट में डॉक्टर की चिकित्सीय-कानूनी रिपोर्ट के हवाले से कहा गया कि समीना के शरीर पर चोट का कोई निशान नहीं था और वह "संभोग की आदी थी."[71]
सरिता, राजस्थान
27 जनवरी, 2016 को, भरतपुर जिले के एक गांव की 17 वर्षीय छात्रा सरिता शौच के लिए जंगल गई थी. उसने आरोप लगाया कि गांव के दो लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया, इसके बाद जब वह नग्न थी तो उन्होंने उसका वीडियो भी बनाया. पुरुषों ने धमकी दी कि अगर उसने बलात्कार के बारे में किसी को बताया वे सोशल नेटवर्किंग साइट पर वीडियो डाल देंगे. आतंकित सरिता ने शुरू में ऐसा ही किया, लेकिन कुछ दिनों बाद उसने अपनी मां को यह बात बताई और उसका परिवार 13 फरवरी को शिकायत दर्ज कराने पुलिस के पास गया.[72] उसके पिता ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि पुलिस ने उस दिन प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार कर दिया. अगले दिन, पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज करने के लिए उनसे 300 रुपए मांगे. उसके पिता ने कहा कि उनके पास केवल 200 रुपये हैं जो उन्होंने दे दिए, और वरिष्ठ अधिकारियों से शिकायत करने की बात कहने पर पुलिस ने 14 फरवरी को प्राथमिकी दायर की.[73]
सितंबर 2016 में, सरिता ने पुलिस के पास आरोपी से धमकियां मिलने की शिकायत दर्ज कराई. उसने कहा कि सितंबर में जमानत पर रिहा होने के बाद, एक आरोपी अपने चाचा के साथ उसके घर पहुंचा और धमकी दी कि अगर उसने अपना बयान वापस नहीं लिया तो वह उसे बर्बाद कर देगा, उसके भाई का अपहरण कर लेगा और उसके परिवार के सदस्यों को मार डालेगा. आरोपी और उसके रिश्तेदार डंडों और अन्य हथियारों के साथ सरिता के घर के बाहर बैठ गए. सरिता ने पुलिस से सुरक्षा मांगी. [74] उसके पिता ने कहा कि पुलिस ने आरोपी को सरिता और उसके परिवार से दूर रहने की चेतावनी दी और उसके बाद से हालत सुधरे हैं.[75] उसका मामला अभी अदालत में लंबित है.
बरखा, उत्तर प्रदेश
बरखा के मामले में जब उसने पहली बार जनवरी 2016 में पुलिस से संपर्क किया तो
ललितपुर जिले की पुलिस ने बलात्कार और अपहरण की शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया. 22 साल की बरखा ललितपुर जिले के एक गांव के दलित परिवार से आती है.
22 वर्षीय बरखा और उसके पति पर 30 जनवरी, 2016 को उनके घर पर आधी रात के करीब उनके गांव के तीन लोगों ने हमला किया. बरखा ने कहा कि दो लोगों ने उसके पति को पीटा और उन्हें उठा कर ले गए और तीसरा, जो एक प्रभावशाली जाति से आता है, ने उनके साथ बलात्कार किया, उन्हें जातिसूचक गलियां दीं. जब बरखा अपने माता-पिता के साथ 31 जनवरी को पुलिस थाने गईं, तो उन्हें वापस लौटा दिया गया.[76] बरखा के पति उस वक्त 3 फरवरी तक लापता थे, जब उन्होंने ललितपुर जिला पुलिस अधीक्षक को बलात्कार और अपहरण की जांच के लिए पत्र लिखा था. अपने पत्र में, बरखा ने शिकायत की थी कि पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार कर दिया क्योंकि मुख्य आरोपी तत्कालीन सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी का स्थानीय नेता था.[77] लेकिन जब यह पत्र लिखने से भी कुछ हासिल नहीं हुआ, तो बरखा ने गैर-सरकारी संगठन जन साहस की मदद से अदालत का दरवाजा खटखटाया.
6 फरवरी को बरखा ने मजिस्ट्रेट कोर्ट में एक याचिका दायर की जिसमें अदालत से अनुरोध किया गया कि वह पुलिस को एफआईआर दर्ज करने और मामले की जांच करने का आदेश दे.[78] बरखा के पति गायब होने के 10 दिन बाद लौट आए. 2 मार्च को अदालत ने पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने और बलात्कार, आपराधिक धमकी, जबरन घुसने, स्वेच्छापूर्वक नुकसान पहुंचाने और अत्याचार रोकथाम अधिनियम के तहत अपराधों के आरोपों की जांच करने का आदेश दिया.[79] अदालत के आदेश के बाद भी पुलिस को एफआईआर दर्ज करने में आठ महीने लग गए.[80] इस बीच, बरखा का गर्भपात हो गया जिसने बताया कि बलात्कार के समय वह गर्भवती थी. यह रिपोर्ट लिखे जाने तक, हालाँकि पुलिस द्वारा प्राथमिकी दायर किए महीनों बीत गए, परिवार का मानना है कि जांच औपचारिक रूप से चल रही है क्योंकि उनके पास क्लोजर रिपोर्ट या अंतिम चार्जशीट के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
काजल, मध्य प्रदेश
14 सितंबर, 2015 को, नीमच जिले की 23 वर्षीय विवाहित महिला काजल अपनी बीमार मां का भोजन लाने के लिए पास के गांव के एक परिचित पुरुष के वाहन पर सवार होकर गईं. काजल ने बताया कि उस आदमी और उसके दो दोस्तों ने उनका बलात्कार किया और उन्हें सड़क के किनारे छोड़ दिया.[81] उसकी चीख सुनकर सड़क से गुजरने वाले एक व्यक्ति ने उसके पिता को सूचित किया, जो उसी दिन उसे पुलिस के पास ले गए. पुलिस ने सामूहिक बलात्कार की शिकायत दर्ज की और उसे मेडिकल टेस्ट के ले गई. लेकिन पुलिस ने उसे एफआईआर की प्रति नहीं दी.[82]
काजल के अनुसार, बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने के एक दिन बाद, पुलिस ने उसे पिता से उसे साथ लेकर थाने आने को कहा ताकि वे उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने के लिए अदालत ले जा सकें. काजल ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि थाने पर पुलिस ने उसके पिता को हिरासत में ले लिया और एक महिला पुलिसकर्मी उसे अकेले अदालत ले गई. वहां महिला पुलिसकर्मी के मोबाइल फोन पर कॉल आया और वह मजिस्ट्रेट के समक्ष काजल का बयान दर्ज कराए बिना उसे पुलिस स्टेशन वापस ले आई. काजल ने कहा कि पुलिस इसके बाद उसे उस स्थान पर ले गई जहां उसके साथ बलात्कार किया गया था और उसे अदालत में यह बयान देने के लिए कहा गया कि अपने पिता के कहने पर उसने बलात्कार की झूठी शिकायत दायर की थी. पुलिस ने उसे बात न मानने पर नशीली दवा देने और जेल भेजने की धमकी दी. काजल ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि पुलिस उसे वापस थाने ले गई और उससे कई सादे पन्नों पर हस्ताक्षर कराया, उसे थप्पड़ मारा और डंडे से पिटाई की. काजल ने कहा कि उसने डर से अदालत में यह झूठा बयान दिया कि उसने अपने पिता के कहने पर झूठा मुकदमा दायर किया था.[83]
काजल ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि पुलिस ने उसके पिता को धमकी दी अगर उसने उस बयान पर हस्ताक्षर नहीं किया कि मैंने झूठी शिकायत दर्ज की थी तो उसे झूठे आरोपों के तहत गिरफ्तार कर लिया जायेगा.[84] पुलिस ने उसके पिता को भी पीटा और दो दिन तक उन्हें हिरासत में रखा.[85]
राज्य के कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और राज्य मानवाधिकार आयोग को 26 सितंबर, 2015 को लिखे पत्र में काजल ने पुलिस की धमकी और पुलिस द्वारा उसके एवं उसके परिवार के साथ किए गए दुर्व्यवहार के बारे में विस्तार से बताया.[86] यह रिपोर्ट लिखे जाने तक पुलिस के खिलाफ कोई कार्रवाई शुरू नहीं हुई थी.
दिसंबर 2015 में पुलिस ने एक क्लोजर रिपोर्ट दायर की, जिसमें कहा गया कि उसकी जांच से पता चला है कि काजल और उसके पिता ने मुख्य आरोपी के साथ जमीन विवाद के कारण झूठी शिकायत दर्ज की थी.[87] हालांकि, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट क्लोजर रिपोर्ट से असहमत थे और उन्होंने जांच अधिकारी को अदालत में पेश होने के लिए कहा. काजल ने भी नवंबर 2016 में अदालत में गवाही दी, और कहा कि पुलिस ने उस पर झूठा बयान देने के लिए दवाब डाला था.[88]
संगीता, उत्तर प्रदेश
ललितपुर जिले की 15 वर्षीय दलित संगीता ने कहा कि 6 जून, 2016 को उसके साथ बलात्कार किया गया. उसने कहा कि उसके गांव के एक आदमी ने रात में उसके घर घुसकर उसका मुँह बंद कर दिया, पिस्तौल दिखाकर धमकी दी और बाहर छत पर ले जाकर उसके साथ बलात्कार किया.[89]
संगीता के माता-पिता बाहर थे, इसलिए उसने अपनी भाभी को इस घटना के बारे में बताया. जब उसके माता-पिता वापस आये, तो वे 12 जून को शिकायत दर्ज कराने थाने गए. पुलिस ने समय पर जांच पूरी की और आरोपी को बलात्कार, जबरन घुसने और आपराधिक धमकी के लिए गिरफ्तार कर लिया. मेडिकल रिपोर्ट में 2014 के दिशानिर्देशों की रूपरेखा का ठीक से पालन किया गया.
हालांकि, ऐसा लगता है कि पुलिस अधिकारी यौन अपराध से बाल संरक्षण अधिनियम के उन प्रावधानों से अनजान हैं, जिसके तहत उन्हें कानूनी सहायता या चिकित्सा परामर्श सेवाओं तक पहुंच के बारे में जानकारी प्रदान करनी है. पुलिस को बाल यौन शोषण के हर मामले की सूचना रिपोर्ट दर्ज होने के 24 घंटे के भीतर बाल कल्याण समिति को भी देनी है, लेकिन वह ऐसा करने में भी विफल रही. इसके अलावा, पुलिस यह सुनिश्चित करने में नाकाम रही कि संगीता को अपना बयान दर्ज करवाने के दौरान अतिरिक्त सदमे से नहीं गुजरना पड़े. संगीता ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि उसे कई बार अपने साथ हुई वारदात की कहानी को दोहराने के लिए कहा गया:
सबसे पहले, एक पुरुष पुलिसकर्मी ने मेरा बयान लिया. फिर एक महिला पुलिसकर्मी थाने आई और उसने भी बयान लिया और मोबाइल फोन में रिकॉर्ड किया. फिर दो दिन बाद, हम मेडिकल जांच के लिए गए और डॉक्टर ने भी मुझसे पूछा कि क्या हुआ था. मुझे फिर से एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के सामने बयान देने के लिए पास के शहर बुलाया गया. इसके बाद, मैंने ललितपुर में महिला थाने में अपना बयान दिया. मुझे बुरा लगा क्योंकि बार-बार वे मुझसे एक ही सवाल पूछ रहे थे और मुझे पूरी घटना सुनानी पड़ रही थी. [90]
अनाधिकारिक खाप पंचायत
उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, पंजाब और राजस्थान जैसे कई उत्तर भारतीय राज्यों में अनधिकृत गांव जाति परिषद, जिन्हें खाप पंचायत कहा जाता है, नैतिक पुलिस के रूप में कार्य करते हैं, महिलाओं के व्यवहार सहित समाज पर नियंत्रण करते हैं.[91] वे अपनी जाति या धर्म के बाहर शादी करने वाले जोड़ों की निंदा करने वाले फरमान जारी करने के लिए जाने जाते हैं और समान रक्त-संबंध (गोत्र) के भीतर शादी की निंदा करते हैं, इसे व्यभिचार मानते हैं भले ही इसका कोई जैविक प्रमाण न हो.[92] इन फरमानों को लागू करने और इस तरह के संबंधों को तोड़ने के लिए, परिवार के सदस्य दंपतियों को धमकी देते हैं, अपहरण के झूठे मामले दर्ज करते हैं और परिवार के "सम्मान" की रक्षा के लिए उन्हें मार डालते हैं.[93] यह चलन जारी है, हालांकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने खाप पंचायतों के ऐसे कार्यों को अप्रैल 2011 में "पूर्णतः अवैध" करार दिया है.[94]
हरियाणा के सभी जाट जातीय परिषदों के छतरी संगठन सर्व खाप पंचायत के प्रवक्ता सूबे सिंह समैन ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि बलात्कार के विरुद्ध बने कानूनों का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जा रहा है:
"एक आदमी बिना सहमति के कभी महिला का बलात्कार नहीं कर सकता है. सामूहिक बलात्कार संभव संभव है और ऐसे लोगों को कड़ी-से-कड़ी सजा मिलनी चाहिए. लेकिन कोई भी पुरुष बिना महिला की सहमति के कभी भी उसका यौन उत्पीड़न नहीं कर सकता है. कभी-कभी सहमति से बने संबंध में चीजें बिगड़ जाती हैं और फिर उसे बलात्कार का नाम दे दिया जाता है."[95]
ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि हरियाणा में कई मामलों में, जहां हमने खाप पंचायत की भूमिका की जांच की, पीड़ितों ने मामला दर्ज नहीं कराया या फिर पंचायतों के दबाव के कारण सुनवाई के दौरान अपना बयान बदल दिया. हरियाणा के एक वकील रजत कलसन, जिन्होंने कई बलात्कार उत्तरजीवियों और बाल यौन उत्पीड़न पीड़ितों की सहायता की है, ने कहा:
हरियाणा में, जब भी निचली जाति की लड़की या महिला का बलात्कार होता है, तो खाप थाने के सामने लोगों को इकट्ठा कर देती है, पुलिस पर यह कहने के लिए दबाव डाला जाता है कि यह सहमति से हुआ और यह कि पीड़ित परिवार मुआवजे के लिए यह सब कर रहा है. पुलिस भी खापों का समर्थन करती है और पीड़िता के परिवार पर दबाव डालती है. अक्सर, एफआईआर दर्ज नहीं होती है. अगर पीड़ित परिवार आपराधिक शिकायत दर्ज कराने का फैसला करता है, तो उन्हें गांव छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है.[96]
हरियाणा के चार दलित
23 मार्च, 2015 को, हिसार जिले के भगाना की चार दलित महिलाएं, जिनमें से दो 18 वर्ष से कम उम्र की थीं, शाम को जब शौच के लिए अपने गाँव के पास के जंगल गई थीं, तब एक कार में चार पुरुषों और एक लड़के ने उनका कथित रूप से अपहरण कर लिया. एक महिला ने बाद में पुलिस को बताया कि पुरुषों ने उसे नशीली दावा दी और सुनसान इलाके में एक झोपड़ी में ले गए. उसने कहा कि उनमें से एक ने जब उसका बलात्कार किया तो वह बेहोश हो गई. अगली सुबह, पड़ोसी राज्य पंजाब में एक रेलवे स्टेशन पर चारों की नींद टूटी.[97] उनके माता-पिता ने ग्राम प्रमुख से शिकायत की, जो कि अभियुक्तों की तरह प्रभावशाली जाट जाति से आते थे, प्रमुख ने उन्हें बताया कि वे उनकी बेटियों को कहां ढूंढें, जोकि उनकी सहभागिता का संदेह पैदा करता है.[98] परिवारों ने अपनी बेटियों को रेलवे स्टेशन पर पाया और 25 मार्च को वे पुलिस शिकायत दर्ज करने गए.
नागरिक समाज समूहों की फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि पुलिस शुरू में एफआईआर दर्ज करने या उत्तरजीवियों की मेडिकल जांच कराने में अनिच्छुक थी.[99] यह पता चला कि दो आरोपियों का कथित रूप से ग्राम प्रमुख से संबंध है. परिवारों और स्थानीय दलित कार्यकर्ताओं के दबाव ने अंततः पुलिस को बलात्कार, अपहरण, आपराधिक साजिश और दंड संहिता के तहत अपराध करने के इरादे से चोट पहुंचाने और अत्याचार निवारण अधिनियम और यौन उत्पीडन से बाल संरक्षण अधिनियम से जुड़े आरोपों के तहत एफआईआर दर्ज करने के लिए मजबूर किया.[100] लेकिन जल्द ही, खाप पंचायत के उत्पीड़न और धमकियों के कारण परिवारों को गांव छोड़ना पड़ा.[101]
अगस्त 2015 में, हिसार की फास्ट ट्रैक कोर्ट ने चार वयस्कों को बरी कर दिया.[102] किशोर को भी बाद में बरी कर दिया गया. सितंबर, 2011 में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से पूछा कि क्या उसने अभियुक्तों को बरी किए जाने के खिलाफ अपील दायर की है?[103] इसके बाद, सरकार ने एक अपील दायर की लेकिन इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक वह लंबित है. खाप नेता सूबे सिंह समैन ने इस मामले को सहमति से हुए यौन सम्बन्ध के तौर पर खारिज कर दिया और आरोप लगाया कि परिवार ने जबरन वसूली के लिए झूठे मामले दर्ज कराए हैं:
माता-पिता अपनी लड़कियों को यह सब करने से नहीं रोकते हैं, और फिर वे बलात्कार का आरोप लगाते हैं. वे दलित लड़कियां हैं, इसलिए उन्होंने एससी/ एसटी अधिनियम [अत्याचार निवारण अधिनियम] का फायदा उठाया. ऐसे मामलों में, वे समझौता करने के लिए पैसे लेते हैं."[104]
कल्पना, हरियाणा
कैथल जिले की दलित 30 वर्षीय कल्पना ने 10 मार्च 2015 को पुलिस को बताया कि जाट समुदाय के छह लोगों ने उस दिन जिंद में उसके साथ बलात्कार किया. कल्पना के साथ जब बलात्कार किया गया तो उसका नंदोई उसके साथ था और उसे पीटा गया. पुलिस ने उसी दिन एफआईआर दर्ज ली और दोनों की मेडिकल जांच हुई थी.[105] जाच के बाद पुलिस ने 28 मार्च को दलित संरक्षण कानूनों के तहत सामूहिक बलात्कार, अपहरण और दुर्व्यवहार के आरोपों के साथ सभी छह लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर किया.[106]
हालांकि, सुनवाई में देरी हुई क्योंकि पुलिस को फॉरेंसिक नतीजों का इंतज़ार था, इसके साथ ही खाप पंचायत ने परिवार को परेशान करना और धमकी देना शुरू कर दिया. कल्पना के वकील ने कहा कि वह भी दबाव में आए, और उन्हें रिश्वत की पेशकश भी हुई, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया. [107] हालांकि, कल्पना ने अदालत में अपना बयान बदल दिया, और सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया गया. उसने परिवार के साथ गांव छोड़ दिया.
कल्पना के नंदोई ने कहा: "अगर आप गांव में रहना चाहते हैं, तो आपको खाप की बात सुननी होगी. उनके [कल्पना और उसके परिवार] पास और कोई रास्ता नहीं था. खाप से कोई भी झगड़ा मोल नहीं ले सकता और न जीत सकता है."[108]
यौन उत्पीड़न पर अपर्याप्त कार्रवाई
भारतीय दंड संहिता में नए यौन उत्पीड़न अपराधों, ताक-झांक और पीछा करने जैसे अपराधों को शामिल करने के लिए संशोधन किया गया. दिल्ली और मुम्बई की घटनाओं के निष्कर्ष से पता चलता है कि पुलिस के पास ऐसे अपराध बहुत कम दर्ज कराए जाते हैं और यहां तक कि जहां रिपोर्ट दर्ज भी की गई है, वहां भी ऐसे मामलों में पुलिस अक्सर एफआईआर दर्ज करने या इन अपराधों की ठीक से जांच करने में नाकाम रही है.[109]
लड़कियों के खिलाफ यौन उत्पीड़न के जिन चारमामलों का ह्यूमन राइट्स वॉच ने दस्तावेजीकरण किया है उनमें पुलिस बाल कल्याण समितियों को सूचित करने में विफल रही थी. पुलिस द्वारा जांच और चार्जशीट दाखिल करने में देरी हुई. माता-पिता कहते हैं कि पुलिस शिकायत दर्ज करने के बाद उन्हें अपनी बेटियों की सुरक्षा की चिंता होती है क्योंकि आरोपी को आसानी से जमानत मिल जाती है और फिर वे धमकी देते हैं.
आरती, उत्तर प्रदेश
15 साल की आरती को तीन युवाओं द्वारा बार-बार ताना मारा जा रहा था और परेशान किया जा रहा था. अक्तूबर 2016 को, आगरा जिले में वे जब आरती के घर के सामने चक्कर काट रहे थे तब आरती के माता-पिता ने युवाओं के माता-पिता से इसकी शिकायत की. इसके बाद तीनों आरती के घर आए और उसके परिवार के साथ दुर्व्यवहार किया तथा उसके भाई और पिता की पिटाई की.
अगले दिन, 9 अक्टूबर को आरती के माता-पिता शिकायत दर्ज कराने के लिए पुलिस स्टेशन गए, लेकिन उन्हें मना कर दिया गया.[110] उन्हें पुलिस अधीक्षक से संपर्क करना पड़ा. इसके बाद स्थानीय पुलिस ने आखिरकार 14 अक्टूबर को भारतीय दंड संहिता के तहत पीछा करने और स्वेच्छा से चोट पहुंचाने एवं यौन उत्पीड़न से बाल संरक्षण अधिनियम के तहत यौन उत्पीड़न के लिए तीन पुरुषों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की.[111] आरती के माता-पिता ने कहा कि शिकायत दायर करने के कारण उन्हें मामले को निपटाने के लिए आरोपी से धमकियां मिलने लगी. जांच अधिकारी ने भी इस मामले को वापस लेने के लिए परिवार पर दबाव डाला. उन्होंने बताया कि उन्हें यह कह कर धमकाया गया कि अगर ये मामला गलत साबित हुआ तो उन्हें सात साल जेल की सजा होगी.[112] शिकायत के एक साल बाद, पुलिस ने अभी तक किसी की गिरफ्तारी नहीं की है, जांच पूरी नहीं की है और न ही मामले में आरोप पत्र दाखिल किया है.
मीना, उत्तर प्रदेश
अक्टूबर 2016 में, 16 वर्षीय मीना जब अपने पिता को दोपहर का भोजन देकर खेतों से लौट रही थी तो झांसी के उसके गांव के तीन लोगों ने उसे रोका और खींच कर ले जाने की कोशिश की. विरोध करने पर उन्होंने उसकी पिटाई की और कुल्हाड़ी से उसका हाथ जख्मी कर दिया. उसकी चीख सुनकर, उसके माता-पिता मौके पहुंचे. वहां, पुरुषों के साथ एक चौथा आदमी आकर मिल गया और उन्होंने उसके माता-पिता पर भी हमला कर दिया. मीना की मां ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि उन्होंने उन्हें लात मारी और उनके पति को डंडे से मारा.[113] पुलिस ने चार लोगों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत महिला को निर्वस्त्र करने के मकसद से हमला करने, इच्छापूर्वक चोट पहुंचाने, आपराधिक धमकी एवं यौन अपराध से बाल संरक्षण अधिनियम के तहत यौन उत्पीड़न के मामले में प्राथमिकी दर्ज की.[114]
मीना के माता-पिता के अनुसार, जल्द ही अभियुक्तों के परिवारों ने मीना के परिवार को धमकी देना शुरू कर दिया. उन्होंने कहा कि मामले को आगे नहीं बढ़ाओ, नहीं तो तुम्हारी हत्या कर दी जाएगी. मीना के माता-पिता ने सुरक्षा के लिए पुलिस अधीक्षक सहित पुलिस को एक शिकायती पत्र लिखा.[115] लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की. पुलिस ने एक आरोपी को गिरफ्तार किया और उसी दिन जमानत पर रिहा कर दिया. बाकी को गिरफ्तार नहीं किया गया, जबकि एफआईआर में स्पष्ट रूप से उनकी पहचान की गई थी. पुलिस ने अभी तक जांच पूरी नहीं की है और न ही आरोप पत्र दाखिल किया है. मीना की मां ने बताया कि उन्होंने मीना की स्कूली शिक्षा रोकने का फैसला किया है:
हमने अपनी बेटी की पढ़ाई रोक दी क्योंकि उसके बाद हम उसे स्कूल भेजने से डर गए थे. यदि अभियुक्त जेल में होते तो हमें डर नहीं लगाता. लेकिन तब तक, हमें उसे अपने साथ सुरक्षित रखना होगा. हमने इस घटना की सूचना दर्ज कराई लेकिन अब हम अपना सम्मान खो चुके हैं.[116]
पायल, उत्तर प्रदेश
14 साल की पायल ने अपने माता-पिता से यह शिकायत की थी कि उसके पड़ोस का 25 वर्षीय एक युवक उसका पीछा करता है. 17 सितंबर, 2016 को, जब वह अपने स्कूल बस का इंतजार कर रही थी तो उसने देखा कि वह युवक सड़क के दूसरी तरफ से उसे घूर रहा है. उसने घर वापस आकर अपने माता-पिता को यह बात बताई. उसके पिता ने उस आदमी से बात करने की कोशिश की लेकिन उसने पायल का अपहरण करने और पिता को गोली मारने की धमकी दी. इसके बाद वह कथित तौर पर अपने माता-पिता और दो भाइयों के साथ पायल के घर आ धमका और पायल को गालियां दीं. उस आदमी ने उन पर पत्थर भी फेंके जिसमें पायल के पिता घायल हो गए. पायल और उसके माता-पिता ने पुलिस शिकायत दर्ज करने का निर्णय लिया.[117]
पुलिस ने भारतीय दंड संहिता के तहत पीछा करने, शांति भंग के इरादे से जानबूझकर अपमानित करने, दंगा भड़काने, इच्छापूर्वक चोट पहुंचाने और आपराधिक धमकी देने एवं यौन अपराध से बाल संरक्षण अधिनियम के तहत यौन उत्पीड़न के आरोपों के तहत एफआईआर दर्ज की.[118] लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, पुलिस ने पोस्को अधिनियम की धारा 4 के तहत भी मामला दर्ज किया, जो कि लिंग प्रविष्टि सम्बन्धी यौन उत्पीड़न के लिए सजा से संबंधित है, जबकि शिकायतकर्ता ने बलात्कार का आरोप नहीं लगाया था. पायल के पिता ने कहा कि अभियुक्त और उनके परिजनों ने उन्हें इस मामले को आगे नहीं बढ़ाने को कहा और उन्हें धमकी दी.[119] पायल ने कहा कि पीछा करना जारी रहा जबकि वे पुलिस द्वारा चार्जशीट दर्ज दाखिल करने का इंतजार करते रहे:
मैं वास्तव में डरती हूं क्योंकि मुझे अकेले अपने कोचिंग सेंटर जाना पड़ता है और वह वहां रास्ते में मेरा इंतजार करता रहता है. उसने मेरा अपहरण करने की धमकी दी. मुझे सड़क पार करने में भी डर लगता है क्योंकि जब भी मैं अपनी साइकिल से कहीं जाती हूं, वह अपनी मोटरसाइकिल पर मेरा पीछा करता है.[120]
सुरभि, उत्तर प्रदेश
30 मार्च, 2016 को ललितपुर जिले में 13 साल की सुरभि के साथ उसके गांव के एक परिचित आदमी ने छेड़खानी की. उसने उसका हाथ पकड़ा और खींच कर ले जाने की कोशिश की. उसकी मां ने उसकी चीख सुनी और उस आदमी से उसे बचाया. सुरभि और उसके माता-पिता ने थाने जाकर यौन अपराध से बाल संरक्षण कानून के तहत प्राथमिकी दर्ज कराई.[121]
हालांकि, एक साल बाद भी पुलिस ने अभी तक न तो अभियुक्त को गिरफ्तार किया है, न जांच पूरी की है और न चार्जशीट ही दर्ज किया है. सुरभि के माता-पिता ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि आरोपी ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी और इस घटना के बाद उनकी बेटी सदमे में है.[122] रिपोर्ट लिखने के समय तक, पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया था लेकिन अभी तक चार्जशीट दर्ज नहीं किया है.
गवाह सुरक्षा का अभाव
गवाह सुरक्षा कानून या देशव्यापी योजना नहीं होने के कारण इस संभावना को बल मिलता है कि कथित अपराधी यौन हिंसा उत्तरजीवियों या उनके परिवार के सदस्यों का पता लगाएंगे और उन्हें धमकी देंगे. जैसा कि ऊपर बताया गया है, ऐसी धमकी कई बार उन्हें अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर करती है. गवाह सुरक्षा की कमी पीड़ितों को जांच में सहयोग करने और अदालत में सच कहने से रोकती है, और इसकी अधिक संभावना होती है कि वे "प्रतिपक्षी गवाह" बन जाएंगे और अपने पहले के बयान से पलट जाएंगे, इस प्रकार सबूतों के अभाव में दोषी बरी हो जाते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार यह बात दोहराई है कि भारत को गवाह सुरक्षा योजना की जरूरत है.[123] एक दशक से भी पहले, भारत के विधि आयोग ने गवाह सुरक्षा के लिए "प्रशासनिक या विधायी कार्रवाई" के लिए विस्तृत सिफारिशें की थीं.[124] अभी तक, भारत ने कानून नहीं बनाया है या संचालन और गवाह संरक्षण के लिए देशव्यापी योजना विकसित नहीं की है. हालांकि, 2015 में राजधानी दिल्ली में, एक गवाह सुरक्षा योजना शुरु की गई.[125]
भारत में प्रभावी गवाह सुरक्षा योजना में एक बड़ी बाधा पुलिस की स्वतंत्रता और जवाबदेही की कमी है, जो ऐसी किसी योजना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.[126] ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जिन मामलों का दस्तावेजीकरण किया गया है, ऐसे कुछ मामलों में अभियुक्तों से धमकियां मिलने की सूचना देने वाले पीड़ितों को सुरक्षा प्रदान करने के बजाय पुलिस ने खुद उत्तरजीवी और उसके परिवार के ऊपर मामले पर जोर नहीं देने के लिए दबाव डाला या आरोपी द्वारा धमकी दिए जाने की शिकायत पर कार्रवाई नहीं की.
निम्नलिखित मामलों में यह बताया गया है कि अपने साथ हुई वारदात को साझा करने पर यौन हिंसा के शिकार अक्सर कितने ज्यादा दबाव महसूस करते हैं या आरोपी से प्रत्यक्ष खतरों का सामना करते हैं.
रचना, हरियाणा
हिसार की दलित रचना ने जुलाई 2015 में प्रभावशाली जाट जाति के एक पुरुष पर अपने साथ बलात्कार करने का आरोप लगाया. इसके बाद परिवार को धमकियाँ मिलनी शुरू हो गईं और उन्हें दैनिक मजदूरी से जुड़ा काम देने से इनकार कर दिया गया. रचना के माता-पिता उन खेतों में काम करके दैनिक मजदूरी कमाते हैं, जिनके मालिक ज्यादातर जाट जाति से हैं. उसके चाचा ने कहा:
वे [आरोपी और उनके परिवार के सदस्य] हमें धमकी देते हुए कहते हैं, "अगर तुम समझौता नहीं करोगे तो हम तुन्हें गांव से बाहर निकाल देंगे." उन्होंने मुझे एक दिन के लिए अपनी दुकान बंद करने के लिए मजबूर किया. दुकान के मकान मालिक [परिसर के स्वामित्व वाले] जाट हैं इसलिए उन्होंने अगले दिन उन्हें [आरोपी और उनके परिवार के सदस्य] इस बात के लिए समझाया कि वे मुझे दुकान खोलने दें.[127]
हर्षिता, राजस्थान
चित्तौड़गढ़ की 30 वर्षीय विवाहित महिला हर्षिता ने एक रिश्तेदार, जो उसका पड़ोसी भी था, पर उसके साथ बार-बार बलात्कार करने आरोप लगाया. 12 जुलाई, 2016 को पुलिस को अपनी शिकायत में, उसने कहा कि जब यह पहली बार हुआ तो उसने इसके बारे में किसी को नहीं बताया क्योंकि आरोपी ने जबरन उसे नशीली दवा खिला दी, नग्न तस्वीरें लीं, वीडियो बनाया और उसके पति को बताने की धमकी दी. लेकिन जब ब्लैकमेल जारी रहा और वह कई महीनों तक बलात्कार करता रहा, तो उसने तंग आकर अपने पति को इस बारे में बताया.[128] पुलिस ने बलात्कार, निर्वस्त्र करने के इरादे के साथ हमला, तांक-झांक और जबरन वसूली के आरोपों के तहत प्राथमिकी दर्ज की.
हर्षिता ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि आरोपी का पिता एक पुलिसकर्मी है और उसका भाई सेना में है, और आरोपी के परिवार ने पति-पत्नी पर मामले को निपटाने के लिए बहुत दबाव डाला.[129] धमकियों और लांछन के कारण दंपत्ति अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हुए. पुलिस ने 30 अक्टूबर 2016 को चार्जशीट दायर किया. आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया था, लेकिन फिलहाल वह जमानत पर बाहर है.
साधना, राजस्थान
भरतपुर की साधना ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि उसे आरोपी के परिवार से अपनी शिकायत वापस लेने के लिए दबाव का सामना करना पड़ रहा है.[130] पुलिस शिकायत दर्ज करने के एक महीने बाद, जून 2016 में, साधना ने पुलिस अधीक्षक को लिखा कि जांच अधिकारी चाहते हैं कि वह आरोपी के साथ समझौते कर ले.[131] जुलाई में उसने आरोपी के परिवार द्वारा डराने और धमकियां देने का आरोप लगाते हुए जिला कलेक्टर, मुख्यमंत्री और पुलिस महानिरीक्षक को भी इसी तरह के पत्र लिखे.[132] लेकिन धमकियां मिलनी जारी रही.
संगीता, उत्तर प्रदेश
जून 2016 में 15 वर्षीय दलित लड़की संगीता के साथ ललितपुर जिले के उसके गांव में प्रभावशाली ठाकुर जाति के एक पुरुष ने बलात्कार किया. संगीता के परिवार पर आरोपी के परिवार और गाँव में उसकी जाति के अन्य परिवारों की ओर से जबरदस्त दबाव था. संगीता के पिता ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि आखिरकार, अपने परिवार की सुरक्षा के लिए डर से उन्होंने गांव छोड़ने और वहां से 16 किलोमीटर दूर चले जाने का फैसला किया. संगीता का परिवार गांव के सिर्फ चार दलित परिवारों में से एक था, जो मुख्यतः एक ठाकुर बहुल गाँव है.[133] उसके पिता ने कहा:
वे [आरोपी के परिवार और ग्रामीण] हमें धमकी दे रहे हैं. लेकिन हमें तो हर हाल में बर्बाद होना है. यदि हम समझौता करते हैं तो हम मुसीबत में हैं, क्योंकि वे भविष्य में कुछ इससे भी बदतर कर सकते हैं. और अगर हम समझौता नहीं करते हैं, तो भी हम मुसीबत में हैं. वे हमारी जान के पीछे पड़े हैं.[134]
बरखा, उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के एक गांव की 22 वर्षीय दलित महिला बरखा ने आरोप लगाया कि 2016 के जनवरी में शक्तिशाली राजनीतिक और जातीय हैसियत वाले एक व्यक्ति ने उसका बलात्कार किया. बरखा ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि उसके शिकायत दर्ज कराने के बाद उसका परिवार गांव छोड़ने के लिए मजबूर हो गया क्योंकि उन्हें आरोपी लगातार धमकी दे रहा था और पुलिस एवं निर्वाचित स्थानीय प्रतिनिधियों ने मदद करने से इंकार कर दिया था. बरखा ने कहा कि उसने न्याय पाने या गांव लौटने की उम्मीद छोड़ दी है: "हम कब तक इस तरह भागते फिरेंगे? हम अपना परिवार, अपना घर, अपना गांव नहीं देख सकते हैं? पूरा परिवार बिखर गया है."[135]
पद्मा, उत्तर प्रदेश
16 वर्षीय पद्मा ने कहा कि 16 जनवरी, 2016 को ललितपुर जिले में उसके गांव के एक आदमी ने उसके साथ बलात्कार किया. उसने यह धमकी भी दी थी कि इस बारे में किसी को बताने पर वह उसे जान से मार देगा. हाई स्कूल की छात्रा पद्मा चुप रही. लेकिन छह महीने बाद, जब उसे पता चला कि वह गर्भवती है, उसने अपने माता-पिता को बताया. 12 जुलाई को, उसके माता-पिता ने जिले के पुलिस अधीक्षक को जांच के लिए पत्र लिखा.[136] अगले दिन पुलिस ने प्राथमिकी दायर की और उसने स्वास्थ्य मंत्रालय के 2014 के दिशानिर्देशों द्वारा निर्धारित प्रारूप के अनुसार मेडिकल जांच भी करायी.[137] लेकिन पुलिस बाल कल्याण समिति को सूचित करने या कानूनी सहायता के बारे में परिवार को कोई जानकारी प्रदान करने में विफल रही.
पद्मा के माता-पिता ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि आरोपी की ओर से मामले को निजी तौर पर निपटाने का उन पर जबरदस्त दबाव है. पिता ने कहा कि अभियुक्त के परिवार ने उन्हें अपनी बेटी की शादी के लिए एक योग्य व्यक्ति ढूंढने को कहा, और कहा कि वे शादी का खर्च उठाएंगे. पिता ने आगे कहा, "आरोपी ने हमें धमकी दी है कि यदि आप समझौता नहीं करते हैं, तो हम आपकी हत्या कर देंगे." सभी गांववाले उनका साथ देते हैं क्योंकि वे अमीर हैं."[138]
राशि, मध्य प्रदेश
40 वर्षीय राशि ने अपने गाँव के एक ग्रामीण द्वारा अपने साथ बलात्कार के बाद 5 सितंबर, 2015 को पुलिस शिकायत दर्ज कराई.[139] लेकिन जमानत पर रिहा होने के बाद आरोपी ने राशि और उसके परिवार को धमकी देना और परेशान करना शुरू कर दिया.
मार्च 2016 में, राशि ने सुरक्षा मांगने के लिए पुलिस को पत्र लिखा.[140] जब पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की और आरोपी ने धमकाना जारी रखा, तो राशि ने अप्रैल में पुलिस अधीक्षक, उज्जैन को एक और पत्र लिखा.[141] जब इस पत्र से भी कोई मदद नहीं मिली और धमकियां मिलनी जारी रही, तो जून 2016 में उसने सुरक्षा मांगने के लिए पुलिस महानिरीक्षक को पत्र लिखा.[142] राशि ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि स्थानीय पुलिस ने उसके पति से विवाद सुलझाने को कहा.[143] लेकिन उसने कहा कि एक गैर-सरकारी संगठन की मदद से उसने मामले में लड़ाई जारी रखी, और जुलाई 2017 में, आरोपी को दोषी ठहराते हुए उसे सात साल जेल की सजा सुनाई गई.
पलक, मध्य प्रदेश
20 जून 2013 को इंदौर जिले के एक गांव से पलक का अपहरण उसके घर से आधी रात डेढ़ बजे कर लिया गया था. अपहरण करने वाले दो लोग प्रभावशाली जाति से आते है. बाद में उसके द्वारा अपने माता-पिता और पुलिस को दी गई जानकारी के मुताबिक, पुरुषों ने चाकू थाम रखा था औए शोर मचाने पर उन्होंने जान से मारने की धमकी दी और और फिर उसका मुँह दबा दिया. अपहर्ता उसे एक अलग शहर में एक घर ले गए जहां उनमें से एक ने कई बार उसके साथ बलात्कार किया. उसके माता-पिता ने उसी दिन पुलिस थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई.
माता-पिता ने पलक के घर वापस लौटने के बाद उससे जो सुना था, उसे याद करते हुए उन्होंने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया: 23 जून को, उनमें एक आदमी ने उसे बस स्टैंड पर छोड़ दिया, घर जाने को कहा, साथ ही घटना की शिकायत करने पर उसे और उसके परिवार को जान से मारने की धमकी दी. जिस दिन पलक लौटी, उसके माता-पिता उसे पुलिस थाना ले गए लेकिन उसने पुलिस को बताया कि वह अपनी मर्जी से पुरुषों के साथ गई थी. लेकिन बाद में, उसने अपने माता-पिता से कहा कि वह आरोपी की धमकी की वजह से पुलिस को सच्चाई बताने से डरी हुई थी.[144] उसके पिता ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि जब उसने आखिरकार उन्हें ब्योरा दिया, तो वे एफआईआर दर्ज कराने 29 फरवरी को वापस थाने गए.[145] लेकिन उसके माता-पिता ने कहा कि पुलिस ने तुरंत आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया और मीडिया रिपोर्टों के कारण उन पर दबाव बना. एफआईआर दर्ज करने के बाद भी, परिवार डरा हुआ है कि आरोपी अपनी धमकी पर अमल करते हुए फिर पलक का अपहरण कर लें.
उसके पिता ने कहा कि पलक धमकी की वजह से स्कूल जाने से भी बहुत डरती है. "स्कूल लगभग दो मील दूर है और हमें डर है कि फिर से कुछ हो सकता है और हम छह महीने के अन्दर दूर के गांव के एक आदमी के साथ उसकी शादी कर देंगे."[146] पुलिस ने 31 अगस्त, 2013 को बार-बार बलात्कार करने, जबरन घुसने, अपहरण और अत्याचार निवारण अधिनियम के अपराधों के तहत चार्टशीट दायर किया. यह रिपोर्ट लिखे जाने तक सुनवाई चल रही थी.
पुलिस का अविश्वास
लिंग-संबंधित अपराध अधिकारियों के साथ-साथ समाज के भी गहरे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं.[147] बलात्कार उत्तरजीवियों के लिए एक बड़ी चुनौती शिकायत की सच्चाई के बारे में पुलिस का नजरिया और संदेह है.
यौन अपराध की रिपोर्ट खारिज करने में अधिकारी जल्दबाजी दिखा सकते हैं, यह ऐसी समस्या है जो तब और गहरी हो जाती है जब पीड़िता अपराधी को जानती हो. 2015 के भारत के राष्ट्रीय अपराध आंकड़े बताते हैं कि उस वर्ष 96 फ़ीसदी बलात्कार के मामले में यही हकीकत है और वास्तव में यह उन सभी मामलों में सच है जिनका दस्तावेजीकरण ह्यूमन राइट्स वॉच ने किया है. कई मामलों में जहां संदिग्ध पीड़ित का परिचित का था, पुलिस ने इस बात पर जोर देकर पीड़ित को परेशान किया कि वह सहमति से बनी यौन गतिविधि में शामिल थी या स्वेच्छा से अभियुक्त के साथ भाग गई थी.
हरियाणा की एक महिला पुलिस अधिकारी ने कहा, "अपने काम में हम जिस प्रमुख चुनौती का सामना करते हैं वह बलात्कार विरोधी कानूनों का दुरुपयोग है. कभी-कभी, परिवारों के बीच पानी या जमीन या कुछ और को लेकर विवाद रहता है, और फिर एक परिवार आएगा और बलात्कार का आरोप लगा देगा."[148]
पुलिस के कैसे शत्रुतापूर्ण व्यवहार का उत्तरजीवी सामना करते हैं, साधना का मामला इसकी मिसाल है. 28 वर्षीय साधना ने बताया कि जब तीन महीने की गर्भवती थी 12 मई, 2014 को उसका बलात्कार किया गया. उसने कहा कि वह और उसके पति एक तथाकथित ओझा-गुणी(तांत्रिक) के पास गए थे, जो उसे कुछ अनुष्ठान करने की आड़ में अकेले मैदान में ले गया, उसे कुछ चूरण खाने के लिए कहा गया, जिससे वह सुस्ती पड़ गई और वह हिलने या चीखने में असमर्थ हो गई, उसने चाकू दिखाकर धमकी दी और फिर उसका बलात्कार किया.[149] राजस्थान में भरतपुर जिले के आदिवासी समुदाय की साधना ने दो दिन बाद 14 मई को पुलिस शिकायत दर्ज कराई. हालांकि पुलिस ने 21 अगस्त को आखिरकार संदिग्ध को गिरफ्तार कर लिया और उसी साल 14 अक्टूबर को आरोप पत्र भी दायर किया, साधना ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि पुलिसकर्मियों ने उसके दावों पर बार-बार संदेह किया. "उन्होंने मुझसे पूछा कि 'सच-सच बताओ' कि क्या तुम्हारा आरोपी के साथ संबंध हैं. मैं रोने लगी और उन्हें बताया कि ऐसा कुछ भी नहीं है."[150]
भारत में कई अधिकारियों के मन में यह प्रचलित विश्वास भरा हुआ है कि केवल "अजनबी द्वारा किया गया बलात्कार" ही बलात्कार है. अभियुक्त का उत्तरजीवी के परिचित होने की स्थिति में, पुलिस थोड़ी-बहुत सहमति का संदेह करते हुए उत्तरजीवियों पर अविश्वास करती है. राजस्थान की सहायक पुलिस आयुक्त और महिला संरक्षण कोषांग की प्रभारी दीप्ति जोशी ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि ज्यादातर मामलों में, पीड़िता अपराधी को जानती है और शिकायतों में एक छुपा हुआ उद्देश्य होता है.[151] उन्होंने कहा:
महिलाओं को सबसे ज्यादा डर केवल तब लगता है जब वे पहली बार अभियुक्त को देखती हैं [आरोपी अज्ञात हैं]. ऐसा केवल कुछ मामलों में है. यह बताता है कि हमारी कानून और व्यवस्था [महिलाओं की सुरक्षा के संबंध में] प्रभावी है.[152]
जोशी का यह मानना गंभीर चिंता का विषय है कि बलात्कार का दावा झूठा होता है, या हमेशा लगभग ऐसा ही होता है, जब इसका दावा ऐसी महिलाओं द्वारा किया जाता हो जो अपने हमलावर को जानती हों - यह मानते हुए कि इनमें से कुछ मामलों में गलत उद्देश्य शामिल हो सकता है, जैसा कि वह दावा करती हैं, लेकिन यह परिचित द्वारा बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने वाली महिलाओं या लड़कियों के दावों को सीधे-सीधे खारिज करने के रवैये को न्यायसंगत नहीं ठहराता है.
पुलिस अधिकारी "झूठे मामलों" को इंगित करते हुए अपने पूर्वाग्रह को सही ठहराने का प्रयास करते हैं, विशेष रूप से जहां महिलाएं और लड़कियां अपने माता-पिता की इच्छाओं के विरुद्ध सहमति से यौन संबंध बनाती हैं, और उसके बाद माता-पिता या रिश्तेदार प्रेमी के खिलाफ अपहरण और बलात्कार के मामले दर्ज कराते हैं. 2012 में, सहमति से सेक्स की उम्र 16 वर्ष से बढ़ाकर 18 कर दी गई तो माता-पिता या रिश्तेदारों द्वारा पुरुषों और लड़कों के खिलाफ प्रतिशोधात्मक आपराधिक शिकायतों के इस्तेमाल का जोखिम और बढ़ गया है.[153]
ऐसे मामले चुनौतीपूर्ण हैं, लेकिन उनसे निपटने के लिए अंतर्निहित सामाजिक समस्याओं को हल करने की जरूरत है. यहां तक कि अनेक वयस्क महिलाओं को जीवन साथी चुनने में परेशानी का सामना करना पड़ता है, स्थिति तब और बिगड़ जाती है जब व्यक्ति अलग जाति या धर्म से होता है. अपना जीवन-साथी चुनने की हिम्मत करनेवाली महिलाओं के खिलाफ हिंसा की कई रिपोर्टें हैं, जिनमें "ऑनर किलिंग्स" शामिल हैं.[154] किशोर लड़कियां को भी ऐसी ही हिंसा का शिकार होने का खतरा रहता है. सहायता सेवाओं तक पीड़ितों की पहुंच कायम करने से, उन महिलाओं और उनके परिवारों द्वारा झूठी शिकायतों के जोखिम को कम किया जा सकता है जो समुदाय के अपमान या फिर जवाबी हिंसा से डरते हैं.
उदाहरण के लिए, ह्यूमन राइट्स वॉच ने हिंदू लड़की पल्लवी का साक्षात्कार किया, जिसने बताया कि जब वह 17 साल की थी, तब उसने अपने 23 वर्षीय विवाहित मुसलमान प्रेमी के साथ घर छोड़ दिया क्योंकि उसके माता-पिता ने रिश्ते का विरोध किया था. पल्लवी के माता-पिता ने बदले के तौर पर उसके प्रेमी के खिलाफ अपहरण और बलात्कार की झूठी शिकायत दर्ज की जिसमें गलतबयानी करते हुए अपनी बेटी की उम्र 15 साल बताया. बलात्कार के मामले में फंसाकर पल्लवी के प्रेमी को जेल में डाल दिया गया, लेकिन रिपोर्ट लिखे जाने के समय वह जमानत पर रिहा हो गया था. पल्लवी की मां झूठा मामला दाखिल करने की बात स्वीकार करती है. उनकी बात से समाज से बहिष्कृत होने के उनके डर के साथ-साथ जीवन के लिए उन खतरनाक संभावित दबावों के बारे में भी पता चलता है, जिसका देश के कई हिस्सों में महिलाएं और लड़कियां केवल अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए सामना कर रही हैं:
हमने उससे कहा, "तुमने अपने धर्म के किसी व्यक्ति को क्यों नहीं पसंद किया, हम उस आदमी के साथ खुशी से तेरी शादी कर देते." हमने उसके (अभियुक्त) के माता-पिता को अपनी बेटी वापस लौटाने के लिए कहा लेकिन उन्होंने हमारी बात नहीं सुनी. तो इसके बाद हम पुलिस थाना गए. हम उसे उसके पास नहीं जाने देंगे. उसकी वजह से हमें जो शर्मिंदगी उठानी पड़ी है उस कारण हम कहीं भी अपना चेहरा नहीं दिखा सकते. हम उसे बहुत प्यार करते हैं. यदि वह किसी और घर में पैदा हुई होती, तो अब तक उसके टुकड़े कर दिए जाते.[155]
मार्च 2017 में, अकादमिक क्षेत्र से जुडी और एक्टिविस्ट मधु किश्वर ने 2013 के संशोधनों को चुनौती देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की, जिसमें कहा गया है कि महिलाओं द्वारा गलत मामले, जो बड़े पैमाने पर बदले की कार्रवाई से प्रेरित होते हैं, दर्ज करने के लिए संशोधनों का दुरुपयोग किया जा रहा है. याचिका में दावा किया गया है कि ज्यादातर झूठे मामले शादी का वादा तोड़ने और सहमति से घर से भागने के होते हैं. याचिका में गैर लिंग (नन-पेनोवेजिनल) प्रविष्टि को शामिल करने के लिए बलात्कार की विस्तारित परिभाषा को भी चुनौती दी गई है, इस तर्क के साथ कि इस तरह के कृत्यों की चिकित्सीय पुष्टि नहीं की जा सकती है.[156] इस तर्क के जवाब में, जुलाई में एक सुनवाई के दौरान, पीठ ने कहा: "ऐसे ज्यादातर मामलों में कोई चिकित्सीय सबूत नहीं होता है. पीड़ित की मौखिक गवाही पर्याप्त है. सिर्फ इसलिए कि कुछ झूठे मामले दर्ज किए जाते हैं, हम वास्तविक पीड़ितों को न्याय से वंचित नहीं कर सकते."[157] अदालत ने याचिका का विरोध करने वाले 17 महिला समूहों व संगठनों के एक समन्वय एंटी-रेप कोएलिशन (एआरसी) को मामले में एक पक्ष के रूप में शामिल करने की अनुमति दी है.[158]
नेशनल लॉ युनिवर्सिटी, दिल्ली के अध्यापक और भारत में यौन हिंसा के मामलों के अभियोजन में न्यायिक प्रक्रिया की कमियों की जांच करने वाली पुस्तक के लेखक, मृणाल सतीश कहते हैं कि कानूनों में बलात्कार और यौन हिंसा के झूठे आरोपों से निपटने के लिए पर्याप्त सुरक्षा कवच हैं:
महिलाएं अक्सर बलात्कार के झूठे आरोप लगाती हैं, यह दुनिया भर में सबसे अधिक प्रचलित बलात्कार सम्बन्धी मिथक है. यह गहरे जड़ जमाये पितृसत्तात्मक और महिला द्वेषी विचारों में निहित है. बलात्कार कानून का किसी अन्य कानून के जितना ही दुरुपयोग किया जाता है. यह विडंबना है कि जब लिंग-संबंधी अपराधों की बात आती है, तो झूठे आरोपों का तर्क तुरंत सामने कर दिया जाता है, जबकि किसी अन्य अपराध के लिए ऐसा तर्क नहीं सुनाई देता है.[159]
III. चिकित्सीयसेवाऔरमेडिकल जांचतकपहुंच
बलात्कार का शिकार होने वाली महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को सक्रिय रूप से चिकित्सीय इलाज़ और परामर्श लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और अब इस तरह के अधिकार के लिए कानून मौजूद है. मेडिकल जांच न केवल चिकित्सीय जरूरत पूरा करती है, बल्कि फॉरेंसिक साक्ष्य इकट्ठा करने में भी मदद कर सकती है.
भारतीय आपराधिक कानून के तहत, अभियोजन पक्ष केवल बलात्कार उत्तरजीवी की गवाही पर बलात्कार के लिए दोषसिद्धि सुनिश्चित कर सकता है, जहां यह भौतिक विवरणों में "ठोस और संगत" हो.[160] फॉरेंसिक पुष्टिकरण कानूनी रूप से प्रासंगिक माना जाता है लेकिन आवश्यक नहीं है. हालांकि, व्यवहार में न्यायाधीश और पुलिस फॉरेंसिक साक्ष्य को विशेष महत्व देते हैं, इसीलिए मानकीकृत चिकित्सीय-कानूनी साक्ष्य संग्रह और इसकी सीमाओं के बारे में जागरूकता आवश्यक है. रिपोर्ट का यह हिस्सा भारत में चिकित्सीय इलाज़ और साक्ष्य संग्रह का नियमन करने वाले कानून और नीति एवं उन्हें लागू करने में प्रगति की कमी का विवरण प्रस्तुत करता है.
कानूनी, नीतिगत और कार्यक्रम संबंधी प्रमुख सुधार
डॉक्टर ऐसी महिलाओं और लड़कियों को मुफ्त प्राथमिक उपचार या चिकित्सीय इलाज़ मुहैया कराने के लिए बाध्य हैं, जो उनसे संपर्क करती हैं और बलात्कार की बात जाहिर करती हैं. बलात्कार उत्तरजीवी के इलाज से इनकार करने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 166 बी के तहत एक वर्ष तक कारावास के दंड का प्रावधान है.[161] डॉक्टरों की यह भी जिम्मेदारी है कि वे पुलिस को सभी यौन अपराधों की सूचना दें, इसका विचार किए बिना कि क्या पीड़ित उस मामले के बारे में पुलिस को सूचित करना चाहते हैं, जिसमें वे मामले भी शामिल हैं जिनमें महिलाएं और बच्चे केवल इलाज़ के लिए उनसे संपर्क करते हैं.[162]
2014 में, केंद्र सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने लैंगिक हिंसा के मामलों से निपटने के लिए दिशानिर्देश जारी किए.[163] 2014 के दिशानिर्देश यह सुनिश्चित करते हैं कि उत्तरजीवी संवेदनशील और बिना भेदभाव तरीके से उचित उपचार प्राप्त करें, जिसमें प्रत्येक उत्तरजीवी की गोपनीयता, गरिमा और स्वायत्तता का सम्मान किया जाता हो. इन दिशानिर्दशों का मकसद चिकित्सा प्रक्रियाओं से पहले रोगी की सूचित सहमति से यौन उत्पीड़न के मामलों में चिकित्सीय प्रमाण के संग्रह को मानकीकृत करना है.[164]
2014 के दिशानिर्देश महिलाओं और बच्चों की गोपनीयता, गरिमा, सुरक्षित वातावरण (उदाहरण के लिए, पुलिस को कमरे में मौजूद नहीं रहना चाहिए और महिला या बच्चे की पसंद का सहयोगी व्यक्ति होना चाहिए) बनाने और सूचित सहमति का सम्मान करने के लिए तैयार की गई प्रक्रियाओं को एकीकृत करते हैं.
ये दिशानिर्देश वैज्ञानिक चिकित्सीय जानकारी और प्रक्रियाएं भी मुहैया करते हैं जो उन प्रचलित मिथकों और बलात्कार से जुड़े अपमानजनक व्यवहारों को सुधारने में सहायता करती हैं जिन्हें आम चिकित्सीय-कानूनी व्यवहारों द्वारा बढ़ावा दिया गया है. पहला, यह "चिकित्सीय रूप से निर्दिष्ट" मामलों में आन्तरिक योनि जाँच तक सीमित "टू फिंगर टेस्ट" के प्रचलित तरीके को ख़त्म करता है और इस बात पर जोर देता है कि डॉक्टरों को अपने चिकित्सीय निष्कर्ष का इस्तेमाल इस तरह की अवैज्ञानिक तथा अपमानजनक टिप्पणी करने के लिए नहीं करना चाहिए कि कहीं पीड़िता "सेक्स की आदी" तो नहीं.[165]
दूसरा, ये डॉक्टरों को सम्पूर्ण-शरीर की जांच, यौन हिंसा की गैर लिंग (नन-पेनाइल) प्रविष्टि रूप सहित, यौन हिंसा मामलों में पीड़ित की आप-बीती सुनकर विशिष्ट उत्तरजीवी के लिए जांच की तैयारी करने के निर्देश देते हैं. इस तरह का सावधानीपूर्ण रवैया बलात्कार के बारे में आम गलत धारणाओं के आधार पर डॉक्टरों द्वारा सतही चिकित्सा जांच करने के खतरे को कम करता है. सबसे गलत धारणा है कि जो पीड़िता "बलात्कार का विरोध नहीं करती" और जिस पीड़िता के शरीर पर प्रतिरोध या योनि में चोट के चिन्ह मौजूद नहीं होते हैं, उसका बलात्कार नहीं हो सकता.[166]
तीसरा, यह डॉक्टरों को बलात्कार के बाद पीड़ित की गतिविधियों (स्नान करना, पेशाब करना, घूमना, कपड़े बदलना आदि) और चिकित्सीय सबूत को नुकसान पहुंचाने के लिए जिम्मेदार किसी भी कारण के दस्तावेजीकरण के लिए अपराध एवं मेडिकल जांच के बीच फासले को दर्ज करने का निर्देश देता है. यह डॉक्टरों को अपनी लिखित राय में और सुनवाई के दौरान चिकित्सा निष्कर्षों की सीमाओं और संभावित नुकसान की व्याख्या करने में मदद करता है.[167]
2014 के दिशानिर्देश डॉक्टरों की भूमिकाओं के बारे में एक प्रमुख गलत धारणा को भी सुधारते हैं, जो यह कहता है कि डॉक्टर इस बारे कोई टिप्पणी नहीं कर सकते हैं कि "बलात्कार" हुआ या नहीं क्योंकि इस निर्णय पर पहुंचना निचली अदालत का काम है.[168] अंत में, 2014 के दिशानिर्देश डॉक्टर को चिकित्सीय-कानूनी जांच और इलाज सहित सभी दस्तावेजों की एक निःशुल्क प्रति उत्तरजीवी को देने को कहते हैं.[169] लैंगिक हिंसा का शिकार होने के बाद, स्वास्थ्य और अन्य सेवाओं तक महिलाओं और बच्चों की पहुँच में सहायता के लिए, महिला और बाल कल्याण मंत्रालय ने वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर योजना की शुरुआत की है.[170]
स्वास्थ्य मंत्रालय के 2014 के दिशानिर्देशों का ख़राब कार्यान्वयन
भारत के संघीय ढांचे के तहत, स्वास्थ्य राज्य का विषय है और इसलिए, राज्य सरकारें कानूनी तौर पर केंद्र सरकार के दिशानिर्देशों को अपनाने के लिए बाध्य नहीं हैं. लेकिन केंद्र सरकार ने दिशानिर्देशों के अपनाने और कार्यान्वयन को प्रोत्साहित करने के लिए कोई भी निगरानी तंत्र नहीं बनाया है. यह अन्य राष्ट्रव्यापी स्वास्थ्य कार्यक्रमों को लागू करने की केंद्र सरकार की राजनैतिक इच्छा के बिल्कुल विपरीत है, खासकर राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और राज्य स्वास्थ्य बीमा योजनाएं, जहां केंद्र सरकार ने राज्यों द्वारा लागू करने के लिए दिशानिर्देश और कार्यक्रम तय किए हैं.
अब तक, केवल 9 राज्यों ने दिशानिर्देशों को अपनाया है, इनमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश[171] और महाराष्ट्र शामिल हैं जहां ह्यूमन राइट्स वॉच ने उत्तरजीवियों और डॉक्टरों के साथ साक्षात्कार किए. कई राज्यों के अपने दिशानिर्देश हैं, लेकिन प्रायः वे पुराने हैं और 2014 के केंद्र सरकार के दिशानिर्देशों जैसे विस्तृत और संवेदनशील नहीं हैं, इनमें ऐसी प्रक्रियाओं और चिकित्सा जांच शामिल हैं, जो जरूरी नहीं भी हो सकते हैं. उदाहरण के लिए, राजस्थान के अस्पतालों में इस्तेमाल किए जाने वाले मानक फॉर्म में एक ऐसा कॉलम अभी भी है जो योनिच्छद (हैमेन) की स्थिति के बारे में जानकारी मांगता है और डॉक्टर इसे भरने के लिए "टू फिंगर टेस्ट" करते हैं. जयपुर के एक अस्पताल में फॉरेंसिक साक्ष्य विभाग के एक मेडिकल कानूनविद ने कहा, "ये फॉर्म्स मेरे जन्म से पहले के हैं".[172]
हालांकि, हरियाणा राज्य सरकार ने 2012 में अपनी चिकित्सीय-कानूनी नियमावली[173] जारी की थी, जो 2014 के दिशानिर्देशों से पहले जारी की गई थी और जिसमें सुधार की जरूरत है, मगर अस्पताल हमेशा उन प्रोटोकॉल्स का पालन नहीं करते हैं. हिसार जिले के सरकारी अस्पताल में, ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि सरकार द्वारा जारी किए गए 17 पृष्ठों के विस्तृत फॉर्म के बजाय डॉक्टरों ने दो पृष्ठ वाले फॉर्म का इस्तेमाल किया. रेजिडेंट चिकित्सा अधिकारी ने कहा, "सरकारी प्रपत्र विस्तृत है. इंटरनेट हमेशा काम नहीं करता है, फिर कभी-कभी प्रिंटर काम नहीं करता, इसलिए हम ज्यादातर पुराने नियमावली फॉर्म का उपयोग करते हैं."[174]
लेकिन, यहां तक कि महाराष्ट्र जैसे राज्य, जिसने दिशानिर्देशों को लागू किया है, में भी मुंबई जैसे बड़े शहरों के बाहर डॉक्टर शायद ही चिकित्सीय-कानूनी दिशानिर्देशों से अवगत होते हैं. वकील मनीषा तुल्पुले ने कहा, "मुंबई में डॉक्टरों को दिशानिर्देशों के बारे में पता हो सकता है, लेकिन जिला और उससे निचले स्तर पर डॉक्टरों को उचित जानकारी नहीं है. वे हमेशा इन सवालों का जवाब देते हैं और परीक्षण के दौरान बचाव पक्ष इन सवालों से लाभ उठाता है और अदालत को गुमराह करता है." तुल्पुले को बलात्कार उत्तरजीवियों की मदद करने का कई वर्षों का अनुभव है और वह बाल कल्याण समिति, महाराष्ट्र की पूर्व सदस्य हैं.[175]
रागिनी का मामला लें, उसने 2013 में हुए संशोधन और 2014 के दिशानिर्देशों से पहले 2013 में बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराई. यह मामला डॉक्टर की चिकित्सीय जांच और सुनवाई के दौरान गवाही के तरीके से जुडी वैसी कई समस्याओं को सामने रखता है, जिनमें सुधार हेतु 2014 के महत्वपूर्ण दिशानिर्देशों में मांग की गई थी. मध्य प्रदेश के देवास के एक गांव की 32 वर्षीय रागिनी ने कहा कि चिकित्सा जांच का उसका अनुभव डरावना था. उसने कहा कि उसका बलात्कार हुआ और उस पर चाकू से हमला भी किया गया था, जिससे उसके हाथ पर साफ़-साफ़ दिखाई देने वाली चोट का निशान पड़ गया था. बलात्कार के 24 घंटे के भीतर उसकी मेडिकल जांच की गई थी.
मेडिकल रिपोर्ट में, डॉक्टर ने यह टिप्पणी दर्ज की थी कि रागिनी "संभोग की आदी है क्योंकि वह 3 बच्चों की मां है, इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि बलात्कार हुआ या नहीं."[176] मेडिकल रिपोर्ट में कहा गया कि "बाएं हाथ पर खरोंच का निशान है, लेकिन ज़ख़्म नहीं है." रागिनी ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि उसके साथ डॉक्टर ने अशिष्ट व्यवहार किया, वह सूचित सहमति हासिल करने में विफल रहा और उसने बाहरी चोटों की अनदेखी की:
मेरे हाथ पर चाकू से बने जख्म थे और यह सूजा हुआ था और दर्द कर रहा था [जब मैं लेडी डॉक्टर के पास गई]. लेकिन उसने कहा कि मैं इसका इलाज़ बाद में करुँगी. फिर उसने मेरे अंदर कुछ डाल दिया. मैं इतना डर गई थी कि मैं कुछ कह भी नहीं पाई. उसने अपनी जांच समाप्त करने के बाद मुझे बताया, "कुछ नहीं हुआ है अगर तुम्हारे साथ कुछ हुआ, तो सबूत मिलना चाहिए था." उसने मेरे घायल हाथ को देखा तक नहीं, मुझे दर्द की दवा भी नहीं दी.[177]
मेडिकल रिपोर्ट लिखने के प्रारूप में यह आवश्यक नहीं था कि चिकित्सक यह जानकारी दर्ज करें कि रागिनी ने जांच के लिए आने से पहले स्नान किया था, पेशाब किया था या पानी से धोया था या नहीं, इनसे महत्वपूर्ण जानकरियां मिट जाती हैं जो सुनवाई के दौरान डॉक्टरों को चिकित्सीय सबूत को नुकसान पहुंचाने वाले संभावित कारणों का विवरण देने में मदद करती हैं. हालांकि, रिपोर्ट में यह दर्ज किया गया कि उसका मासिक चक्र चल रहा था. सुनवाई के दौरान विशेषज्ञ गवाह के रूप में, डॉक्टर ने बताया कि उसने कोई आंतरिक चोट नहीं पायी. हालांकि उसने उल्लेख किया कि मेडिकल परीक्षा के दौरान रागिनी का मासिक चक्र चल रहा था, उन्होंने सबूतों के संभावित नुकसान पर कोई टिप्पणी नहीं की.[178]
कुछ मामलों में, जिनका दस्तावेजीकरण ह्यूमन राइट्स वॉच ने उन राज्यों में किया है जिन्होंने 2014 के दिशानिर्देशों को अपनाया है, चिकित्सा कर्मचारियों ने जांच के दौरान पुलिस अधिकारी को उपस्थित रहने की अनुमति दी और वे अक्सर सूचित सहमति हासिल करने में या जाँच के उद्देश्य की व्याख्या करने में विफल रहे.
मिसाल के तौर पर, स्वास्थ्य अधिकारियों ने मध्य प्रदेश की 40 वर्षीय राशि को, जब सितंबर 2015 में उसकी जांच की गई, चिकित्सा जाँच के बारे में नहीं बताया और उससे सूचित सहमति भी नहीं मांगी . इसके बजाय डॉक्टर ने उसके पति को फॉर्म पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा.[179] चिकित्सा रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकाला गया चूँकि पीड़िता दो बच्चों वाली विवाहिता मां है, "बलात्कार के बारे में कोई स्पष्ट राय नहीं बनती है."[180] अस्पताल के कर्मचारियों ने एक महिला पुलिसकर्मी को पूरी मेडिकल जांच के दौरान उपस्थित रहने की इजाजत दी, जो राशि के लिए असहज था. राशि ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया:
जब उसने अपनी उंगलियों को मेरे अंदर डाला तो मुझे जलन होने लगी जैसे किसी ने मिर्च डाल दी हो. लेकिन पास खड़ी पुलिसकर्मी की वजह से मुझे कुछ कहने में डर लगा.[181]
पुलिस, न्यायाधीश और डॉक्टरों की भूमिका
राज्य का गृह विभाग, जिसके अधीन पुलिस काम करती है, यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि सरकार के दिशानिर्देश अपनाए जाएँ. पुलिस एफआईआर दर्ज करने के बाद, मेडिकल जांच सम्बन्धी मांग-पत्र के साथ पीड़ित को मेडिकल जांच के लिए ले जाती है. फॉर्म में आमतौर पर डॉक्टरों की राय के लिए एक या एक से अधिक प्रश्न सूचीबद्ध होते हैं. जहां ये फॉर्म खराब तरीके से तैयार किए गए हैं, वहीँ 2014 दिशानिर्देशों का पालन करने के बजाय डॉक्टरों को इन सवालों का जवाब देने में दबाव का सामना करना पड़ता है.
उदाहरण के लिए, 2014 के दिशानिर्देशों में न केवल लिंग प्रविष्टि बल्कि यौन अपराधों की सभी श्रेणियों को संबोधित करने के निर्देश शामिल हैं, और यह चिकित्सीय मंतव्य विकसित करने के तरीकों के बारे में विस्तृत मार्गदर्शन प्रदान करता है. लेकिन पुलिस और डॉक्टरों, दोनों के साथ ह्यूमन राइट्स वॉच के साक्षात्कारों से पता चलता है कि पुलिस ने डॉक्टरों का ध्यान इन सवालों के जवाब की तरफ खींचना जारी रखा है कि क्या वीर्य मिला, या "जबरन" बलात्कार हुआ, जो तथ्यों के लिए प्रासंगिक हो भी सकते हैं और नहीं भी. मुंबई के एक वरिष्ठ प्रसूति रोग विशेषज्ञ ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया:
पुलिस हमेशा हमसे पूछती है कि क्या जबरन [यौन] हमला हुआ है, क्या वीर्य मौजूद है. वे प्रशिक्षित नहीं हैं और इसलिए वे ऐसे प्रश्न पूछते हैं. पुलिस के लिए, यौन हमला केवल [लिंग] प्रविष्टि है. हमारे लिए इससे जुड़ी कई चीजें हैं: मुख मैथुन (ओरल सेक्स), यौन शोषण (मोलेस्टेशन), अन्य चीजें. जो चीज़ हमें परेशान करती है, वह है– पुलिस के मांग-प्रपत्र में [लिंग] प्रविष्टि [यौन] हमले को प्रमुखता दिया जाना.[182]
न्यायाधीश भी कई मामलों में 2014 के दिशानिर्देशों से अनजान हो सकते हैं या उनका पालन नहीं कर सकते हैं. अदालती फैसले में दो उंगली परीक्षण (फिंगर टेस्ट) के बारे में डॉक्टरों के अवैज्ञानिक और अपमानजनक निष्कर्षों का हवाला देने का चलन अभी तक समाप्त नहीं हुआ है, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस चलन को हतोत्साहित किया है.[183] उदाहरण के लिए, कर्नाटक की फास्ट-ट्रैक अदालत के फैसलों के एक अध्ययन में पाया गया कि 25 प्रतिशत फैसलों में इस जांच और पीड़ित के यौन संभोग की आदी होने का स्पष्ट संदर्भ दिया गया है.[184]
"दो उंगली परीक्षण" के निष्कर्षों का इस्तेमाल बंद करने से आगे बढ़कर चिकित्सा प्रमाणों की सीमाओं को समझने के लिए न्यायाधीशों के प्रशिक्षण की आवश्यकता है. यह निचली और उच्च न्यायपालिका में बलात्कार मिथकों और रूढ़ियों को रोकने में बहुत सहायक होगा, विशेष रूप से "बलात्कार का प्रतिरोध" और चिकित्सा रिपोर्टों से इस तरह के प्रतिरोधों के बारे में सूचना प्राप्त करने के मामले में. मुंबई की एक नगरपालिका अस्पताल की एक वरिष्ठ प्रसूति रोग विशेषज्ञ, जिन्हें अक्सर बलात्कार के बारे में गवाही देने के लिए बुलाया है, ने कहा कि उन्हें अक्सर अदालत में बुनियादी तथ्यों की व्याख्या करने की जरूरत पड़ती है, और कि इस मामले में 2014 के दिशानिर्देश उपयोगी हो सकते हैं:
मैंने फैसला किया है कि भविष्य में मैं अदालत में केंद्र सरकार के दिशानिर्देशों और महाराष्ट्र सरकार के आदेश लेकर जाऊंगी क्योंकि नोंक-झोंक और बहस करने की बजाय, उन्हें दिशा-निर्देश दिखाना बेहतर है.[185]
जमीनी पड़ताल के निष्कर्ष बताते हैं कि जहां डॉक्टरों को प्रशिक्षित किया जाता है और उन्हें अच्छी तरह से दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए तैयार किया जाता है, वे दबाव में आए बिना चोटों की अनुपस्थिति और साक्ष्य के नुकसान के बारे में सवाल पूछने योग्य हो जाते हैं. मुंबई स्थित सेंटर फॉर इनक्वायरी इनटू हेल्थ एंड अलाइड थीम्स की शोध अधिकारी आरथी चंद्रशेखर कहती हैं, "हमने पाया है कि ऐसे मामलों में जहां डॉक्टर अदालतों में चिकित्सीय सबूतों की सीमाओं की व्याख्या कर पाए हैं, उत्तरजीवियों का पक्ष मजबूत हुआ है."[186]
चिकित्सीय सेवा और परामर्श को अपर्याप्त महत्व
यौन हिंसा के मामले में स्वास्थ्य प्रदाताओं की दोहरी भूमिका होती है. किसी भी आपराधिक जांच और अभियोजन के दौरान जरूरी फॉरेंसिक साक्ष्य इकट्ठा करने के अलावा, उन्हें उत्तरजीवियों को चिकित्सीय सेवा प्रदान करनी चाहिए- जिसमें उनकी यौन, प्रजनन और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का इलाज शामिल है. 2014 के दिशानिर्देशों में बताया गया है कि डॉक्टर को कैसे यौन संचारित संक्रमणों सहित अन्य मामलों का इलाज़ और आपातकालीन गर्भनिरोधक प्रदान करना चाहिए, एचआईवी के जोखिम का आकलन करना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो पोस्ट एक्सपोज़र प्रॉफीलैक्सिस (उतरोतर चिकित्सा व निवारण) प्रदान करना चाहिए.[187] दिशानिर्देशों में उत्तरजीवियों के मनोसामाजिक देखभाल की भी व्यवस्था की गई है. यह कहता है कि स्वास्थ्य पेशेवरों को खुद फर्स्ट लाइन सपोर्ट (प्राथमिक सहायता) प्रदान करना चाहिए या यह सुनिश्चित करना चाहिए कि संसथान का कोई अन्य प्रशिक्षित व्यक्ति आगे इलाज करे.[188] हालांकि, डॉक्टर आमतौर पर फॉरेंसिक साक्ष्य संग्रह को प्राथमिकता देते हैं, और यदि समय हो तो भी आवश्यक चिकित्सकीय सेवा प्रदान करने पर कम समय खर्च करते हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा बलात्कार के जिन मामलों का दस्तावेजीकरण किया गया है, लगभग सभी मामलों में महिलाओं और लड़कियों ने कहा कि परामर्श सहित उनकी स्वास्थ्य आवश्यकताओं पर करीब-करीब कोई ध्यान नहीं दिया गया. कोई निर्णयात्मक रवैया नहीं अपनाने और इलाज और जांच के लिए सुरक्षित वातावरण प्रदान करने के बजाए बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने वाली महिलाओं के प्रति डॉक्टर का रवैया ऐसा होता है जो पीड़िताओं को फिर से सदमे में डाल सकता है.
उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश की दलित किशोरी 18 वर्षीय पलक की जांच करने वाले डॉक्टर ने तत्काल परामर्श और अन्य रेफरल सेवाओं की पेशकश करने के बजाय पीड़िता को दोषी ठहराया.[189]
पलक की मां, जो चिकित्सा जांच के दौरान अपनी बेटी के साथ कमरे में मौजूद थीं, ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि डॉक्टर ने यह संकेत देने की कोशिश की कि पलक बलात्कार के बारे में झूठ बोल रही है:
डॉक्टर ने मेरी बेटी से कहा, "तुम अपने माता-पिता के लिए ऐसी परेशानी क्यों खड़ी कर रही हो? यदि उन लोगों ने तुम्हारे साथ जबरदस्ती की होती, तो तुम्हारे शरीर पर निशान होना चाहिए, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है. तुमने जरूर अपनी मर्जी से ऐसा किया होगा." जांच के दौरान, मेरी बेटी दर्द से चिल्ला रही थी और कह रही थी कि उसे बहुत दर्द हो रहा है.लेकिन डॉक्टर ने उसे डांट दिया. मेरी बेटी इसके बाद और अधिक डर गई.[190]
नीमच जिले की 23 वर्षीय काजलvlink को अपने पति के परिवार का साथ नहीं मिला, और सितंबर 2015 में उसके साथ हुए बलात्कार के महीनों बाद भी उसे चिकित्सा और परामर्श सहायता की बहुत जरूरत थी. उसके पति और ससुराल वालों ने उसे छोड़ दिया, और वह अपने माता-पिता के पास लौट गई. अभियुक्तों की धमकियों के बाद वह और उसके माता-पिता अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हो गए. लेकिन उसकी जांच करने वाले डॉक्टर ने परामर्श के लिए कोई रेफरल सेवा प्रदान नहीं की. उसने कहा:
मैंने सब कुछ खो दिया है और सब मुझे दोष देते हैं. मैं घटना के बाद एक महीने तक घर से नहीं निकल पाई. मैं पड़ोसियों के ताने सुन-सुन के थक गई हूँ. मैंने खाना-पीना बंद कर दिया है, घर पर एक पागल महिला की तरह पड़ी रहती हूँ. ऐसा लगता है जैसे मैंने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है.[191]
बलात्कार के बाद सुरक्षित गर्भपात तक अपर्याप्त पहुंच
बलात्कार के बाद गर्भवती हो जाने पर सुरक्षित गर्भपात तक महिलाओं और लड़कियों की पहुँच होनी चाहिए. गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 पंजीकृत डॉक्टरों को 20 सप्ताह तक का गर्भ निकालने की अनुमति देता है "जहां गर्भावस्था की निरंतरता से गर्भवती महिला के जीवन को खतरा हो या यह उसे गंभीर शारीरिक या मानसिक क्षति पहुंचा सकती हो."[192] कानून यह भी कहता है, "जहां गर्भवती महिला ने यह आरोप लगाया हो कि बलात्कार के कारण गर्भ ठहरा है, तो यह माना जाना चाहिए कि ऐसी गर्भावस्था की पीड़ा गर्भवती महिला के मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर क्षति पहुंचा सकती है."[193]
ह्यूमन राइट्स वॉच ने ऐसे दो मामलों का दस्तावेजीकारण किया है जिसमें 18 साल से कम उम्र की लड़कियां बलात्कार के परिणामस्वरूप गर्भवती हुईं. बलात्कार के बाद ललितपुर जिले की 16 वर्षीय पद्मा को जब उसकी गर्भावस्था का पता चला, तो उसका गर्भ 28 सप्ताह का हो गया था.[194] उसकी चिकित्सीय-कानूनी परीक्षा के बाद, जिसमें अल्ट्रासाउंड जांच भी शामिल थी, प्रसूति रोग विशेषज्ञ ने पद्मा के परिवार को बताया कि गर्भपात के लिए बहुत देर हो चुकी है. बलात्कार के बाद उसकी जांच करने वाले डॉक्टर ने परामर्श प्रदान नहीं किया था और न ही इसके लिए किसी नाम की सलाह दी. उसके माता-पिता ने उसका स्कूल जाना बंद करा दिया. उसकी मां ने कहा, "अब, हम इतने शर्मिंदा हैं कि हम गांव में कहीं नहीं जाते और न हीं किसी के घर जाते हैं. हमारी अविवाहित बेटी मां बन गई है."[195] सितंबर 2016 में, पद्मा ने एक बच्ची को जन्म दिया और जनवरी 2017 में ह्यूमन राइट्स वॉच ने जब उसके परिवार का साक्षात्कार लिया, उस समय उसे राज्य सरकार द्वारा अपने मुआवजे के अनुरोध पर कार्रवाई किए जाने का इंतज़ार था.
अप्रैल 2016 में, 17 साल की गायत्री ने मध्य प्रदेश के खरगौण जिले की पुलिस को बताया कि उसके पिता कई महीनों से उसका बलात्कार कर रहे हैं. उसके भाई ने कहा कि उसने यह उत्पीड़न देखा है.[196] उसकी मेडिकल जांच के दौरान, डॉक्टर ने उसके परिवार से उसे अल्ट्रासाउंड के लिए जिला अस्पताल ले जाने की सलाह दी क्योंकि वह गर्भवती थी. अल्ट्रासाउंड से पता चला कि वह तीन महीने की गर्भवती है. गायत्री की चाची ने कहा कि प्रसूति रोग विशेषज्ञ ने उसे बताया कि गायत्री की उम्र चूँकि 18 वर्ष से कम है, ऐसे में उन्हें गर्भपात के लिए अदालत की अनुमति लेनी होगी, हालाँकि कानूनन ऐसा जरूरी नहीं है.[197]
गायत्री के ताऊ ने निचली अदालत में याचिका दायर की लेकिन अदालत ने गर्भपात की अनुमति देने से इनकार कर दिया. इसके बाद उसके चाचा ने उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने मई 2016 में गायत्री को गर्भपात की अनुमति दी. जब गायत्री ने गर्भपात कराया, तब वह पांच महीने की गर्भवती थी. उसकी चाची के अनुसार, गायत्री को गर्भपात के बाद देखभाल या मनोसामाजिक परामर्श नहीं दिया गया, अतः कुछ समय के लिए वह बीमार रही.[198] पुलिस और अस्पताल ने मामले के बारे में सूचित करने के लिए बाल कल्याण समिति से संपर्क भी नहीं किया और न ही यह सुनिश्चित किया कि गायत्री को उससे मदद मिले. फरवरी 2017 में, मध्यप्रदेश की एक अदालत ने गायत्री के पिता को उम्रकैद की सजा सुनाई और उसे मुआवजे देने का निर्देश दिया.[199]
हाल ही में, कई बलात्कार पीड़ितों ने डॉक्टरों के इनकार के बाद सुरक्षित गर्भपात के लिए अदालतों में याचिका दायर की है.[200] सबसे हालिया मामले में, बलात्कार के बाद गर्भवती हुई चंडीगढ़ की एक 10 वर्षीय पीड़िता बार-बार सुरक्षित गर्भपात की अनुमति से वंचित कर दी गई. जब उच्चतम न्यायालय में अपील की गई, तब उसके अनुरोध को तदर्थ बोर्ड के चिकित्सीय राय का हवाला देते हुए इनकार कर दिया गया.[201] एक सार्वजनिक बयान में, स्वास्थ्य अधिकार समूहों ने भारत सरकार से मांग की कि कोई भी ऊपरी समय सीमा तय किए बिना वह सभी बलात्कार पीड़ितों को सुरक्षित गर्भपात की सुविधा सुनिश्चित करे (जैसी अनुमति पहले से ही एमटीपी अधिनियम की धारा 5 के तहत दी गई है) यह मानते हुए कि इस तरह के मामलों में, "गर्भावस्था बच्चे और किशोरी (और साथ-ही-साथ महिला) के जीवन, स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है," और कम उम्र की लड़कियों के प्रसव, जिसमें मौत का खतरा रहता है. की तुलना में सुरक्षित गर्भपात बहुत कम जोखिम भरा है.[202]
IV. प्रभावीकानूनीसहायतातकपहुंचकाअभाव
1994 में, सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि बलात्कार पीड़ितों को पुलिस स्टेशनों पर कानूनी सहायता प्रदान की जानी चाहिए. अदालत ने सभी पुलिस स्टेशनों को ऐसे मामलों में कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए इच्छुक अधिवक्ताओं की सूची रखने का भी आदेश दिया है जिनमें पीड़ितों के पास वकील नहीं हैं.[203]
पीड़ितों को कानूनी व्यवस्था में मदद करने और उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए कानूनी सहायता महत्वपूर्ण है. इस तरह की सहायता विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि सरकारी अभियोजक अक्सर काम के बोझ से दबे होते हैं और अदालत में बिना तैयारी के आते हैं.[204]
दिल्ली की वरिष्ठ आपराधिक वकील रेबेका ममैन जॉन ने कहा:
पीड़ित का वकील बहुत बड़ा अंतर ला सकता है क्योंकि पीड़ित के वकील पर अदालत में परीक्षा लेने के लिए तैयार करने के लिए कोई सीमा पट्टी नहीं है, वह पीड़ित को उन्मुख करने में मदद कर सकता/सकती है, उसे कानूनी कार्यवाही के प्रति सचेत रख सकता/सकती है, न्यायालयों में आवश्यक हस्तक्षेप कर सकता/सकती है जब सरकारी अभियोजक कमजोर पड़ रहे हों, विशेष रूप से जब कानूनी तौर पर स्वीकार्य साक्ष्य और आपत्ति की बात आती है तो उन्हें ये सब उठाना चाहिए.[205]
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के दो दशकों से अधिक समय बीत जाने के बावजूद, भारत में कोई ऐसा देशव्यापी कार्यक्रम नहीं है जिसमें पुलिस स्टेशन व्यवस्थित तौर पर कानूनी सहायता सेवाओं से जुड़े हुए हों.
एक सकारात्मक उदाहरण में, सरकार का एक संवैधानिक निकाय- दिल्ली महिला आयोग (डीसीडब्लू), रेप क्राइसिस सेल संचालित करता है जो पुलिस स्टेशनों और कानूनी सहायता के बीच समन्वय का काम करता है. हालांकि, जब वास्तविक क्रियान्वयन की बारी आती है तो यह मॉडल कई बार बौना साबित होता है. उदाहरण के लिए, दिल्ली स्थित पार्टनर्स फॉर लॉ इन डेवलपमेंट द्वारा दिल्ली में 2014 और 2015 के फास्ट-ट्रैक अदालतों के बलात्कार की 16 सुनवाइयों के एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि डीसीडब्लू स्कीम "पर नजर नहीं रखी जा रही है और यह अपने मकसद के मुताबिक काम नहीं कर रही है."[206]
कानूनी सहायता की गुणवत्ता एक और चुनौती है. यहां तक कि दिल्ली में, पीड़ितों ने शिकायत की कि विधि सहायता वकील अदालतों में हाजिर नहीं होते हैं, समय पर आवेदन दर्ज नहीं करते हैं, और कुछ मामलों में कथित रूप से भ्रष्टाचार में शामिल रहते हैं. दिल्ली की वकील वृंदा ग्रोवर, जिन्हें बलात्कार उत्तरजीवियों को मदद पहुंचाने का लम्बा अनुभव है, का कहना है, "अगर आपको अच्छा वकील मिल जाए तो यह वास्तव में आपकी खुशकिस्मती है"[207] उन्होंने कहा, "विधि सहायता वकीलों को दिया जाने वाला कम पारिश्रमिक प्रभावी कानूनी सेवा प्राप्त करने में एक महत्वपूर्ण बाधा है." लेकिन उन्होंने जवाबदेही की कमी की बात भी उजागर की: विधि सहायता वकील द्वारा प्रदान की गई सेवाओं का मूल्यांकन करने की कोई अच्छी व्यवस्था नहीं है.[208]
हरियाणा में, पुलिस का कहना है कि वे बलात्कार के मामलों में विधि सेवा अधिकारियों को बुलाते हैं और जब पुलिस पीड़ित का बयान रिकॉर्ड करती है तब वकील मौजूद रहते हैं. विधि सहायता वकील पीड़ित को तब भी सहायता करते हैं जब वह मजिस्ट्रेट के सामने अपना बयान दर्ज कराती है. लेकिन विधि सहायता वकीलों के प्रशिक्षण और जागरूकता की कमी का अर्थ है कि वे पीड़ितों को क्षतिपूर्ति के अधिकार के बारे में सूचित करने से चूक जाते हैं, और कुछ बलात्कार पीड़ितों के खिलाफ पूर्वाग्रह रखते हैं. उदाहरण के लिए हरियाणा के हिसार में जिला विधि सेवा प्राधिकार की वकील रेखा मित्तल कथुरिया ने अपने आँकड़ों का बिना स्रोत बताये कहा:
महिलाएं बड़े पैमाने पर इन बलात्कार विरोधी कानूनों का दुरुपयोग कर रही हैं. बलात्कार के अस्सी प्रतिशत मामले झूठे होते हैं. पीड़िता पुलिस स्टेशन आती हैं क्योंकि उन्हें पैसों की चाहत होती है या कोई अन्य विवाद होता है. यहां तक कि जब सही में बलात्कार हुआ होता है, तब भी खुद महिलाएं ही इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार होती हैं. कोई हमारे साथ बलात्कार क्यों नहीं करता है?[209]
ह्यूमन राइट्स वॉच ने जिन महिलाओं का साक्षात्कार किया उनमें से किसी ने भी पुलिस के पास जाने के बाद कानूनी सहायता प्राप्त करने में कोई मदद मिलने की बात नहीं कही. पिछले अध्यायों में वर्णित कई मामलों में, महिलाओं ने स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों की सहायता से वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और विभिन्न राज्य प्राधिकारों को पत्र लिखा और न्याय के लिए अदालतों में आवेदन दायर किए. नए अध्ययनों से पता चलता है कि फास्ट-ट्रैक अदालतों को प्रभावी बनाने में सहायता के लिए गवाह सुरक्षा के साथ कानूनी सहायता महत्वपूर्ण है. सरकार ने देश भर में लगभग 524 फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना की है ताकि महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों का निपटारा करने में तेजी लाई जा सके.[210]
ऐसा कोई भी देशव्यापी अध्ययन नहीं है जो यह बताए कि फास्ट-ट्रैक अदालतें कितनी प्रभावकारी साबित हुई हैं. तथ्य बताते हैं कि, व्यवस्था में पीड़ित की मदद करने के लिए उसे कानूनी सहायता प्रदान करने सहित अन्य महत्वपूर्ण चिंताओं पर समान रूप से ध्यान दिए बिना केवल फास्ट-ट्रैक अदालतें स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित करने से उनकी प्रभावकारिता कम हो जाती है.[211]
लड़कियों से जुड़े मामलों में, कानून जांच और सुनवाई की पूरी प्रक्रिया में बच्चे को सहायता प्रदान करने के लिए एक सहयोगी व्यक्ति उपलब्ध कराता है.[212] इस संबंध में अक्सर कार्यान्वयन की कमी रहती है, जैसा कि ह्यूमन राइट्स वॉच ने बाल यौन शोषण पर अपनी 2013 की रिपोर्ट में दर्ज़ मामलों में पाया.[213]
दिल्ली राज्य विधि सेवा प्राधिकार की 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एक और बड़ी समस्या यह है कि यौन हिंसा उत्तरजीवी अपने मामले के बारे में अद्यतन जानकारी प्राप्त नहीं कर पाते हैं. दिल्ली राज्य विधि सेवा प्राधिकार की विशेष सचिव गीतांजलि गोयल ने कहा:
यही कारण है कि हम कहते हैं कि पोस्को (यौन अपराधों से बाल संरक्षण अधिनियम) की तरह बलात्कार के मामलों में सहयोगी व्यक्ति उपलब्ध कराया जाना चाहिए. यह अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन एक विकल्प होना चाहिए, क्योंकि पीड़ित को मामले की स्थिति, पुलिस जांच, चार्जशीट दर्ज की गई या नहीं, आरोपी ने जमानत के लिए आवेदन दिया या नहीं; इन सबके बारे में पता नहीं रहता है.[214]
जांच और सुनवाई में देरी
भारत में आपराधिक मुकदमे कई महीनों तक चलते है और कुछ मामलों में तो कई साल लग जाते हैं क्योंकि अदालती सत्रों के बीच अंतराल होता है और ये अक्सर स्थगित हो सकते हैं. हालांकि, आपराधिक दंड संहिता प्रक्रिया में यह जरूरी होता है कि सभी गवाहों की जांच पूरी होने तक बलात्कार के मामलों में सुनवाई प्रतिदिन की जाए, और जहां अगली तारिख से आगे अगर स्थगन होता है तो कारणों को दर्ज किया जाना चाहिए. इसके अलावा, "जहां तक संभव हो," आरोप पत्र पत्र दाखिल करने की तारीख से दो महीने के भीतर सभी बलात्कार सम्बन्धी सुनवाइयां पूरी कर लेनी चाहिए.[215] अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम में संशोधन द्वारा भी त्वरित सुनवाई के लिए समान प्रावधान किया गया है यदि पीड़िता दलित या आदिवासी समुदायों से आती हो.[216]
हालांकि, सुनवाई पूरा करने के लिए दो महीने की अवधि व्यवहारिक नहीं है और यह अभियुक्त के निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को चुनौती दे सकता है, जैसा कि पार्टनर्स फॉर लॉ इन डेवलपमेंट के 2017 के अध्ययन में पाया गया है.[217] देर होने के कुछ आम कारणों के बारे में रिपोर्ट में फॉरेंसिक रिपोर्ट में देरी; बचाव पक्ष, अभियोजन, या अदालत के अधिकारियों द्वारा माँगा गया स्थगन; वकीलों की हड़ताल; और अदालत पर मुकदमों के बोझ का हवाला दिया गया है. साथ ही, जैसा कि रिपोर्ट में दर्ज है और ह्यूमन राइट्स वॉच ने भी पाया है, सुनवाई में देरी से उत्तरजीवी और उसके परिवार द्वारा अभियुक्त के दबाव में सुनवाई की प्रक्रिया छोड़ने की आशंका और बढ़ जाती है.[218]
फॉरेंसिक रिपोर्ट में देरी से बलात्कार की जांच में बड़ी बाधा उत्पन्न हो सकती है. सैकड़ों मामले रुके पड़े हैं क्योंकि फॉरेंसिक प्रयोगशालाएं अपर्याप्त संसाधनों और कर्मचारियों की कमी से जूझ रही है. [219] जयपुर की सहायक पुलिस आयुक्त दीप्ति जोशी ने कहा कि फॉरेंसिक रिपोर्ट के लिए कम-से-कम तीन से चार महीने लगते हैं.[220] दिसंबर 2015 में, दिल्ली पुलिस के कामकाज पर गृह मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति की एक रिपोर्ट में फॉरेंसिक अधिसंरचना की अपर्याप्तता पर "चिंता व्यक्त की गई" और यह सिफारिश की गई कि उचित और तेज जांच व सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए प्रयोगशालाओं की क्षमता और शक्ति को बढ़ाया जाए.[221]
दिल्ली में एकमात्र सरकारी फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की निदेशक मधुलिका शर्मा ने कहा कि वे 2014 से लंबित पड़े मामलों से निपटने के लिए दो पालियों में काम कर रहे हैं:
पुलिस, लेकिन विशेषकर न्यायपालिका, अब सभी मामलों में डीएनए की मांग करती है. हमारे पास आने वाले मामलों में से 60 से 70 प्रतिशत मामले बलात्कार के होते हैं. हमारे पास करीब 2,200 मामले लंबित हैं, जिन्हें अगले साल तक पूरा होने की उम्मीद है. साथ ही नए मामलों में हम 60 से 90 दिनों के भीतर पुलिस को जांच रिपोर्ट वापस भेजने की कोशिश करते हैं.[222]
जैसा कि ऊपर वर्णित है,18 वर्षीय दलित पलक का अनुभव को लें, जिसका जून 2013 में मध्य प्रदेश में अपहरण और बलात्कार किया गया था. उसका मामला यह बताता है कि पर्याप्त कानूनी सहायता की कमी भी सुनवाई में ऐसी देरी का कारण बन सकती है. बार-बार के स्थगन के कारण, पालक का पूरा बयान दर्ज करने में अभियोजक को तीन साल का समय लगा और कथित अपराधी के खिलाफ आपराधिक मामला अभी भी निचली अदालत में लंबित है. पलक के पास कोई वकील नहीं है और वह सरकारी अभियोजक पर निर्भर है.[223] अप्रैल, 2017 की सबसे हाल की सुनवाई में, अदालत ने पाया कि एक पुलिस रिपोर्ट जो कि पलक के माता-पिता ने उसके गायब होने पर दायर की गई थी, पुलिस द्वारा प्रस्तुत अभिलेखों में शामिल नहीं की गई है. पुलिस ने इसके लिए दो महीने का वक्त मांगा, लेकिन रिपोर्ट लिखे जाने के समय उसने कोई अभिलेख प्रस्तुत नहीं किया था.
पलक के माता-पिता ने कहा कि काश उन्हें कानूनी कार्यवाही के बारे में बेहतर जानकारी होती: "हमने सरकारी अभियोजक से पूछा कि इस मामले की क्या स्थिति है, लेकिन उन्होंने कहा कि जब अदालत में हमारी तारीख आएगी, तो वह हमें सूचित करेंगे. हम मामले के बारे में कुछ नहीं जानते और हम किसी से पूछ भी नहीं सकते."[224]
दिल्ली स्थित वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा: "शिकायतकर्ता के वकील की भूमिका बेहद सीमित है. उनके पास लिखित तर्क देने का अधिकार है, साक्ष्य के मामले में उनकी भूमिका नेतृत्वकारी नहीं है. यह सरकारी अभियोजक है जो गवाहों की जांच करता है और सबूत प्रस्तुत करता है. दोषसिद्धि इस देश में चमत्कार है."[225]
V. यौनहमला उत्तरजीवियों कीसहायताहेतु पहल
भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की रोकथाम और उसके विरुद्ध प्रयासों में विभिन्न मंत्रालयों और राज्य सरकारों के कामकाज के मार्गदर्शन के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम नहीं है. नतीजतन, केंद्र या राज्य सरकार द्वारा आरम्भ कार्यक्रमों की पैबन्दकारी की जाती है. इन तदर्थ प्रयासों की भी सही निगरानी नहीं की जाती है क्योंकि यौन हिंसा सहित महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध हिंसा का नियमन करने वाले कानूनों के क्रियान्वयन और प्रभाव का आकलन करने के लिए भारत में देशव्यापी निगरानी और मूल्यांकन संरचना नहीं है. संयुक्त राष्ट्र महिला इकाई में एंडिंग वायलेंस अगेंस्ट वीमेन की प्रमुख अंजू पाण्डेय ने कहा, "यहां तक कि न्याय तक बुनियादी पहुंच में भी, हम वास्तव में कोई बदलाव नहीं देख रहे हैं. इन सभी कार्यक्रमों की निगरानी और चौकसी कहाँ है?"[226]
2013 में, केंद्र सरकार ने महिलाओं के संरक्षण और पुनर्वास सम्बन्धी योजनाओं के लिए निर्भया कोष की स्थापना की और इसके लिए 2013 से 2017 के बीच 3,000 करोड़ रुपए आवंटित किए.[227] तीन साल बाद, इसके लिए आवंटित अधिकांश राशि बिना उपयोग के पड़ी रही. मई 2016 में, सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी पूछा कि राशि खर्च क्यों नहीं की गई.[228]
दिल्ली स्थित थिंक टैंक, सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबिलिटी (सीबीजीए) और गैर सरकारी संगठन जागोरी की 2017 की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि दो महत्वपूर्ण योजनाओं, 181 महिला हेल्पलाइन और वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर, के लिए निर्भया बजट आवंटन, 2012-13 में उनकी शुरुआत के पहले तीन वर्षों में अप्रयुक्त रह गया. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि एक महत्वपूर्ण योजना, 'बलात्कार पीड़ितों हेतु वित्तीय सहायता और सहायता सेवाएं: सबलीकरण न्याय योजना', धनराशि आवंटित किए जाने के बावजूद लागू नहीं हुई और अंततः 2015-16 में इसे बंद कर दिया गया.[229]
हेल्पलाइन्स
भारत में महिलाओं और लड़कियों के लिए लैंगिक हिंसा की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए कई हेल्पलाइन्स है. उदाहरण के लिए, कई राज्य सरकारें हिंसा पीड़ितों सहित जरूरतमंद महिलाओं या बच्चों के लिए 24 घंटे की हेल्पलाइन संचालित करती हैं.[230]
2013 में, केंद्र सरकार ने निर्भया कोष के तहत एक और हेल्पलाइन 181 की घोषणा की और कहा कि यह महिलाओं के लिए एक राष्ट्रीय हेल्पलाइन होगी.[231] इस नई सर्वव्यापी हेल्पलाइन का उद्देश्य वर्तमान कमियों को दूर करना है, जिसमें आपातकालीन सेवाएं मुहैया कराना या कॉलर को उचित सहायता सेवाएं संदर्भित करना शामिल है.[232] हेल्पलाइन में विकलांगों की जरूरतें पूरी करनी है, जिसमें मूक-बधिर लोगों को लिखित सन्देश (टेक्स्ट मैसेज) के जरिए मदद पहुंचाने का प्रस्ताव है.[233] अगस्त 2017 में, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने कहा कि हेल्पलाइन 22 राज्यों में काम कर रही है और वन स्टॉप सेंटर्स को उनसे जोड़ा जाएगा.[234] हालांकि, हेल्पलाइन में बड़ी मात्रा में आने वाले कॉल्स प्राप्त करने के लिए अपर्याप्त कर्मचारी चिंता का विषय हैं.[235]
केंद्रीय पीड़ित मुआवजा कोष
सरकार ने 2015 में हिंसा उत्तरजीवियों (महिला) के लिए निर्भया कोष से केंद्रीय पीड़ित मुआवजा कोष (सीवीसीएफ) योजना की भी घोषणा की, जिसमें राज्यों की मौजूदा मुआवजा योजनाओं को पूरा करने के लिए 200 करोड़ रुपए आवंटित किए गए.[236]
फरवरी 2017 में, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने घोषणा की कि वह यौन अपराध के शिकार बच्चों की सहायता के लिए निर्भया योजना के तहत मुआवजा कोष स्थापित करेगा. लेकिन अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार, हालाँकि ये कोष महत्वपूर्ण हैं, मगर सरकार उस तंत्र को दुरुस्त करने में काफी हद तक विफल रही है जिसकी जरूरत उस कोष तक पीड़ितों की पहुँच बनाने में पड़ती है. बाल अधिकार समूह हक़: सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स के सह-संस्थापक भारती अली ने कहा, "आप कोष बना सकते हैं, लेकिन बच्चों की इन कोषों तक पहुंच में कौन मदद करेगा?"[237]
वन स्टॉप सेंटर योजना
निर्भया कोष के तहत एक बड़ी योजना वन स्टॉप सेंटर स्कीम (ओएससी स्कीम) है, जहां एक ही स्थान पर एकीकृत सेवाएं - पुलिस सहायता, कानूनी सहायता और चिकित्सा एवं परामर्श सेवाएं - यौन हिंसा के शिकार लोगों के लिए उपलब्ध होंगी.[238] मानक उपचार और जांच नियमावली के आधार पर संचालित ये केंद्र यौन हिंसा उत्तरजीवियों के लिए देखभाल और फॉरेंसिक साक्ष्य संग्रह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. ये स्वास्थ्य सेवा कर्मियों, पुलिस, वकील और न्यायाधीशों के लिए शैक्षिक संसाधन के रूप में भी काम कर सकते हैं.[239]
हालांकि, अधिकारों पर काम करने वाले स्थानीय समूहों और गैर-सरकारी संगठनों के साथ सार्थक परामर्श के बिना, ओएससी योजना जल्दबाज़ी में शुरू की गई. ये समूह और संगठन पहले से ही देश के विभिन्न हिस्सों में, अस्पतालों, पुलिस स्टेशनों या अदालतों में क्राइसिस इंटरवेंशन सेंटर (संकट-हस्तक्षेप केंद्र) चला रहे हैं. [240] सरकार इन मौजूदा केंद्रों को एकीकृत करने या देश के विभिन्न हिस्सों में विकसित मॉडल से उपयुक्त कार्यप्रणाली तैयार करने में विफल रही है.[241] इसने आम तौर पर अस्पतालों, पुलिस स्टेशनों और अदालतों में पहुँचने वाले लैंगिक हिंसा के शिकार लोगों तक पहुंच का विस्तार नहीं किया है. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज द्वारा पुलिस स्टेशनों में संचालित विशेष प्रकोष्ठ (स्पेशल सेल्स) की प्रभारी अंजली दवे ने कहा, "प्रभावी होने के लिए, वन स्टॉप सेंटर्स को कई संस्थानों- अस्पतालों, पुलिस कार्यालयों और अदालतों, में अवस्थित किया जाना चाहिए- और इनके बीच समन्वय स्थापित करना चाहिए."[242]
सरकार के अनुसार, अगस्त 2017 तक, पूरे देश में 151 केंद्र स्थापित किए गए हैं.[243] जैसा कि नीचे दी गई कुछ ज़मीनी हकीकतें दर्शाती हैं, ये केंद्र एकीकृत सेवाएं मुहैया कराने के लिए निर्बाध गति से काम करें, यह सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न संबंधित विभागों और मंत्रालयों के बीच समन्वय की कमी है. इन केंद्रों के बारे में जागरूकता भी कम है. दिल्ली सरकार की योजना के तहत बाबा साहब अम्बेडकर अस्पताल में एक वन स्टॉप सेंटर काम करता है. यहाँ के चिकित्सा अधीक्षक पुनीत महाजन ने बताया, "वन स्टॉप सेंटर में बहुत कम मरीज़ आते हैं. ज्यादा जागरूकता नहीं है. [उत्तरजीवियों] को ज्यादातर मामलों में पुलिस लेकर आती है. उन्हें तो यह जानकारी भी नहीं है कि ऐसी कोई सुविधा है भी."[244]
ह्यूमन राइट्स वॉच के शोध के ज़मीनी साक्ष्य बताते हैं कि जो चंद वन स्टॉप सेंटर (ओएससी) स्थापित किए गए हैं, यौन हिंसा उत्तरजीवियों के लिए सेवाएं प्रदान करने में प्रभावी नहीं हैं. उदाहरण के लिए, 2013 में जयपुर का अपराजिता केंद्र जयपुरिया अस्पताल में स्थापित किया गया था. यह ओएससी योजना विकसित करने से पहले एक पायलट केंद्र के रूप में स्थापित किया गया था. रिपोर्ट लिखे जाने के समय, इस केंद्र का ज्यादातर इस्तेमाल वैवाहिक विवादों के परामर्श केंद्र के रूप में हो रहा था. इस केंद्र का संचालन करने वाले एनजीओ के प्रभारी ने कहा, "बलात्कार पीड़ित वास्तव में यहां आती ही नहीं हैं. वे अस्पताल जाती हैं, जो पुलिस स्टेशन से जुड़ा हुआ है, जहां वे प्राथमिकी दर्ज करती हैं. अगर बलात्कार पीड़ित यहाँ आती हैं, तो हम संबंधित पुलिस थाने में प्राथमिकी दर्ज करने में उनकी मदद करते हैं. लेकिन चिकित्सा जांच के लिए उन्हें संबंधित अस्पताल जाना पड़ेगा क्योंकि मजिस्ट्रेट केवल वहां की रिपोर्ट स्वीकार करेंगे."[245] जयपुरिया अस्पताल, जहां अपराजिता केंद्र अवस्थित है, के एक डॉक्टर ने कहा:
यह एक असफल परियोजना है. सोच यह थी कि पुलिस जांच, चिकित्सा और कानूनी मदद, सभी एक ही स्थान पर मुहैया किया जाएगा. लेकिन अगर पीड़ित को पुलिस स्टेशन पर वापस जाना पड़ता है जिसका क्षेत्राधिकार होता है, तो वन स्टॉप सेंटर का क्या मतलब रह जाता है? इसके अलावा, बहुत कम लोगों को कोई कानूनी सहायता मिलती है. इन केंद्रों का ज्यादातर उपयोग वैवाहिक विवादों को सुलझाने में किया जाता है.[246]
प्रशिक्षित परामर्शदाताओं सहित पर्याप्त संसाधनों की कमी, और हेल्पलाइन से इन केंद्रों को जोड़ने में विफलता से उनकी प्रभावशीलता कम हो जाती है, और अंततः ये पीड़ितों के काम नहीं आते हैं. हरियाणा के हिसार में एक अस्थायी वन स्टॉप सेंटर, महिला पुलिस स्टेशन के अंदर अवस्थित है, जबकि सरकार न्यायालय परिसर में पूरे तौर से वित्त पोषित और पर्याप्त रूप से कर्मचारी वाले एक ऐसे केंद्र के निर्माण का इंतजार कर रही है. जिस महिला ने इस केंद्र का दो माह पहले कार्यभार संभाला है, उसने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि उसके पास कर्मचारी या संसाधन नहीं हैं:
सच्चाई यह है कि हम इन मामलों को आगे नहीं ले जा सकते क्योंकि हमारे पास कोई संसाधन नहीं है. हमें पीड़ितों से बात करने और उनकी मदद करने के लिए कहा जाता है लेकिन हमारे पास विशेषज्ञ मनोवैज्ञानिक नहीं हैं. मैंने कुछ किताबें पढ़ी हैं, लेकिन किताबें पढ़ना और व्यावहारिक मामलों पर किताबी ज्ञान लागू करना- दो अलग-अलग बातें हैं.[247]
VI. राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनी ढांचा
लैंगिक हिंसा की रोकथाम के लिए भारतीय कानून को लागू करना अभी भी एक चुनौती है परन्तु हाल के वर्षों में महिला अधिकार समूहों और कार्यकर्ताओं ने यौन हिंसा को संबोधित करने वाले मौजूदा क़ानूनों को मज़बूत बनाने और नए क़ानूनों को लागू करने में योगदान दिया है.
आपराधिक कानून संशोधन 2013
2012 में दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार के कारण हुए विरोध के बाद केंद्र सरकार ने "मौजूदा क़ानून की समीक्षा के लिए" सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायधीश जगदीश शरण वर्मा की अध्यक्षता में तीन सदस्यों की एक समिति गठित की ताकि "यौन हिंसा के संगीन मामलों में त्वरित न्याय और कठोर दंड दिया जा सके.[248]
इस समिति ने नागरिक संगठनों से विचार एवं सुझाव आमंत्रित किए और समिति को 70,000 से ज्यादा प्रतिक्रियाएं मिलीं.[249] विस्तृत विचार एवं तुलनात्मक कानूनी अनुसंधान के बाद समिति ने जनवरी 2013 में सरकार को विस्तृत अनुशंसाओं के साथ अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिनमें से कई सुझावों को कानून में शामिल किया गया.[250]
आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम को अप्रैल 2013 में लागू किया गया.[251] संशोधन के द्वारा बलात्कार की परिभाषा को विस्तृत कर इसमें योनि में गैर-लैंगिक वस्तुओं की प्रविष्टि को भी बलात्कार की श्रेणी में रखा गया,[252] बलात्कार के लिए कम-से-कम सात साल की अनिवार्य सजा का प्रावधान किया गया[253] और कुछ विशेष परिस्थितियों में, जैसे "सांप्रदायिक या सामुदायिक हिंसा" के दौरान किये जाने वाले बलात्कार के मामलों में दी जाने वाली सजा को बढाया गया.[254] इसमें बलात्कार को लेकर कुछ व्यापक भ्रम को भी दूर करने का प्रयास किया गया. उदाहरण के लिए, भारतीय दंड संहिता में ये साफ़ किया गया है कि यदि स्त्री ने बलात्कार के विरोध में “शारीरिक प्रतिरोध” नहीं भी किया तो इसे इस बात का आधार नहीं बनाया जा सकता कि उसने यौन संबंधों के लिए सहमति दी,[255] और इसमें सहमति को परिभाषित करते हुए इसे “सुस्पष्ट स्वैच्छिक समझौता” कहा गया जिसमें महिला किसी यौन गतिविधि में शामिल होने के लिए (मौखिक या गैर मौखिक) इच्छा जताती है.[256] इसमें पीड़ित को उसके यौन इतिहास से सम्बंधित जिरह या सबूत पेश करने से मिली सुरक्षा को और मज़बूत किया गया.[257]
इसमें यौन उत्पीड़न,[258] पीछा करने,[259] ताक-झाँक करने[260] और ज़बरन निर्वस्त्र करने[261] को नए अपराधों के रूप में शामिल किया गया. बलात्कार और तेज़ाब हमला के पीड़ितों के इलाज के अधिकार को मानते हुए चिकित्सकों द्वारा निःशुल्क और तुरंत चिकित्सीय इलाज़ प्रदान करना वैधानिक कर्त्तव्य घोषित किया गया[262] और चिकित्सकों द्वारा इनका इलाज करने से इनकार करने को दंडनीय अपराध घोषित किया गया.[263] पुलिस द्वारा बलात्कार समेत कुछ आपराधिक शिकायतों को दर्ज करने में असफ़ल रहने को भी अपराध घोषित किया गया.[264] इस संशोधन के द्वारा सरकारी अधिकारियों के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामलों में कारवाई करने के लिए सरकार की अनुमति की बाध्यता को समाप्त कर दिया गया.[265]
हालांकि कई महिला संगठनों ने संशोधन के मुख्य बिन्दुओं की आलोचना की. यह सरकारी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने के लिए सरकार की सहमति की बाध्यता को समाप्त करने में असफल है. उदाहरण के तौर पर, घरेलू अभियानों के दौरान यौन हिंसा में शामिल सैन्य बलों को अब भी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) के तहत सुरक्षा हासिल है, जो कि वर्मा कमिटि की सिफ़ारिशों का उल्लंघन है.[266]
यौन अपराध से बाल संरक्षण अधिनियम (पोस्को एक्ट), 2012 के तहत सहमति की उम्र को बढ़ा कर 18 साल करने के विरुद्ध कई महिला एवं बाल अधिकार संगठनों द्वारा सहमति की उम्र को वापस 16 साल करने की मांग को मानने के बजाय इस संशोधन ने सहमति की उम्र 18 साल रखते हुए पास्को अधिनियम को दंड संहिता के अनुरूप कर दिया.[267] भारत के किशोर न्याय (बच्चों की सुरक्षा एवं देखभाल) अधिनियम में 2015 में हुए संशोधन को ध्यान में रखते हुए सहमति की उम्र में बदलाव अधिक चिंताजनक है जो बलात्कार के मामले में आरोपित होने पर 16 साल से अधिक उम्र के लड़कों को व्यस्क मान कर मुक़दमा चलाने की अनुमति देता है जिसमें आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है.[268]
2013 में हुए संशोधन के तहत चिकित्सा सेवा प्रदाताओं के लिए यौन हिंसा के सभी मामलों की सूचना पुलिस को देना अनिवार्य कर दिया गया है जिसकी कई स्वास्थ्य अधिकार संगठनों द्वारा आलोचना की गई है.[269] संशोधन वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने में विफल रहा और इसने बलात्कार के लिए मौत की सजा की शुरुआत की, जो न्यायमूर्ति वर्मा आयोग और अधिकार समूह की सिफारिशों के खिलाफ है.[270]
यौन हिंसा से बाल संरक्षण अधिनियम
जून 2012 में भारत ने कई नए यौन अपराधों की श्रेणियां बनाकर विशेष रूप से बाल यौन उत्पीड़न को अपराध मानते हुए पहला व्यापक कानून लागू किया.[271].
कार्यप्रणाली एवं आधारभूत संरचना को बच्चों के मामले में संवेदनशील बनाया गया है, उदाहरण के लिए, पूछताछ प्रक्रियाओं का पुलिस द्वारा अनिवार्य अनुपालन करना और केवल बच्चों के खिलाफ यौन अपराध के मामलों के निपटारे के लिए विशेष कोर्ट का गठन. यह कानून बच्चों से आक्रामक पूछताछ पर रोक लगाता है, उनकी पहचान सुरक्षित करने के उपायों को इसमें शामिल करता है और अदालतों को अपराध का संज्ञान लेने के एक साल के अन्दर सुनवाई पूरी करने के लिए प्रेरित करता है.[272]
इस कानून के साथ दो समस्याएं हैं जिनकी व्यापक आलोचना की गयी है; इसमें न सिर्फ सेक्स के लिए सहमति बल्कि “यौन उद्देश्य से जुड़ी किसी भी गतिविधि” के लिए सहमति की उम्र को 16 साल से बढ़ा कर18 साल कर दिया गया है[273] और कुछ आपराधिक मामलों में दोष पूर्वानुमान को लागू किया गया है.[274]
अनुसूचित जाति एवं अनूसूचित जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम
यदि यौन हिंसा पीड़ित अनूसूचित जाति, जिसे दलित (पूर्व में अछूत) भी कहा जाता है, या अनूसूचित जनजाति से है तो पुलिस को अनुसूचित जाति एवं अनूसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम के तहत मामला दर्ज करना चाहिए. 2015 में संशोधित इस अधिनियम के अनुसार इस कानून के तहत दर्ज सभी अपराधों में प्रतिदिन सुनवाई होनी चाहिए जब तक कि सभी गवाहों के बयान दर्ज न हो जाएँ और जहाँ तक संभव हो, आरोप पत्र दाखिल होने के दो महीने के भीतर सुनवाई पूरी कर ली जानी चाहिए. इसके अतिरिक्त, इस कानून के तहत पुलिस को जांच पूरी करके 60 दिनों के भीतर आरोप पत्र दाखिल कर देना चाहिए.[275]
अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत भारत के दायित्व
भारत नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय समझौते (आइसीसीपीआर), आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौते (आइसीईएससीआर), बाल अधिकार समझौते (सीआरसी), महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने के समझौते (सीईडीएडब्लू) और विकलांगों के अधिकारों के लिए हुए समझौते (सीआरपीडी) का हिस्सा है.
अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत यौन हिंसा या उत्पीडन उत्तरजीवियों के अधिकारों को सुनिश्चित करना भारत का कर्त्तव्य है. 1993 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की समाप्ति के लिए जारी किये गए महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव समाप्ति पर घोषणा पत्र के अनुच्छेद 4 के अनुसार सरकारों को अविलम्ब सभी साधनों का इस्तेमाल करते हुए स्त्रियों के खिलाफ होने वाली हिंसा को समाप्त करने की नीति अपनानी चाहिए और इसके लिए स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा के मामलों को तत्परता से रोकने के लिए और इन मामलों में जांच और राष्ट्रीय कानून के अनुसार सजा देने के लिए काम करना चाहिए चाहे ये अपराध राज्य द्वारा किये गए हों या किसी निजी व्यक्ति द्वारा.[276]
आईसीईएससीआर का अनुच्छेद 12, उच्चतम प्राप्त स्वास्थय मानक, जिसमें यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य शामिल हैं, की गारंटी करता है. आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों के लिए बनी समिति जो इस समझौते की निगरानी करने वाली अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ संस्था है, उसने स्वास्थ्य के अधिकार पर जारी सामान्य विस्तृत टिप्पणी में कहा है कि राज्य द्वारा महिला अधिकारों की सुरक्षा के कर्त्तव्य में लैगिक हिंसा से जुड़ा स्वास्थ्य का मुद्दा भी शामिल है.[277] सुरक्षात्मक, उपचारात्मक एवं पुनर्वास सम्बन्धी स्वास्थ्य सेवाएं भौतिक और आर्थिक रूप से पहुँच में होनी चाहिए.[278]
आइसीसीपीआर के अनुच्छेद 7 के अनुसार किसी भी व्यक्ति के साथ “क्रूर, अमानवीय या असम्मानजनक व्यवहार” नहीं किया जाना चाहिए.[279] संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति, जो इस समझौते की निगरानी करने वाली संस्था है, इसने अनुच्छेद 7 पर अपनी सामान्य टिप्पणी में कहा है “अनुच्छेद 7 के प्रावधानों का उद्देश्य व्यक्ति के आत्मसम्मान और शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य, दोनों की रक्षा करना है”.[280] इसमें स्पष्ट किया गया है कि अनुच्छेद 7 के तहत निषेध “चिकित्सा संस्थानों” के “रोगियों” पर भी लागू होता है[281] सरकारों को चाहिए कि वह वैधानिक या दूसरे उपायों के माध्यम से हर व्यक्ति की रक्षा करे जहाँ अनुच्छेद 7 के तहत प्रतिबंधित कृत्यों के विरुद्ध ऐसा किया जाना जरुरी हो.[282]
भारत को संयुक्त राष्ट्र निकाय की अनुशंसाएं
महिलाओं के खिलाफ हिंसा के कारण और प्रभाव के अध्ययन के लिए संयुक्त राष्ट्र की विशेष दूत रशीदा मंजू ने अप्रैल 2013 में भारत का दौरा किया और निवारण तंत्र, साथ ही क़ानूनी सलाह, परामर्श सुविधाएँ और आश्रय तक महिलाओं की पहुँच सुनिश्चित करने में आने वाली दिक्क़तों पर चिंता जताई. मंजू ने परिवार और सामुदायिक नेताओं के बीच होने वाले अनाधिकारिक ट्रायल और वार्तालाप की आलोचना करते हुए कहा कि वे महिलाओं को पुनः पीड़ित करते हैं और उन्हें समाधान से दूर कर हिंसा का शिकार होने के बड़े जोखिम की ओर धकेल देते हैं. साल भर बाद जारी अपनी रिपोर्ट में मंजू ने सरकार से हिंसा की शिकार सभी महिलाओं के लिए न्याय और प्रभावी निवारण तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिए कारगर कदम उठाने की मांग की और खाप पंचायतों पर पूर्ण पाबंदी लगाने को भी कहा.[283]
2014 में भारत की चौथी और पांचवी सामयिक रिपोर्ट पर अपनी अंतिम टिप्पणी में सीईडीएडब्लू कमिटि ने सुझाव दिया कि सरकार को महिलाओं और लड़कियों को हिंसा से सुरक्षित करने के लिए पुलिस को सशक्त बनाना चाहिए, लिंग-संवेदी जांच और पीड़ित व गवाहों के साथ बर्ताव के लिए हर राज्य में मानक कार्यप्रणाली अपनानी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एफ़आईआर समय से दर्ज की जाए.[284] इसने सुझाव दिया कि यौन हिंसा रोकने में कानून के कार्यान्वन, प्रभावकारिता और असर की निगरानी और मूल्यांकन के लिए सरकार को एक कारगर व्यवस्था विकसित करनी चाहिए; सरकार को क़ानूनी सेवा प्राधिकार की उपलब्धता और कार्यक्षमता की निगरानी करनी चाहिए, क़ानूनी साक्षरता कार्यक्रम शुरू करना चाहिए, दलित और आदिवासी महिलाओं के लिए उपलब्ध सभी कानूनी उपायों के प्रति उनकी जागरूकता का स्तर बढ़ाना चाहिए, और इन प्रयासों के नतीजे की निगरानी करनी चाहिए.[285]
2014 में भारत की तीसरी और चौथी सामयिक रिपोर्ट पर अंतिम टिप्पणी में द कमिटि ऑन द राइट्स ऑफ़ द चाइल्ड ने यह चिंता जताई कि आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 में 15 साल से अधिक उम्र की विवाहित लड़कियों के यौन उत्पीडन को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है और इसने सुझाव दिया 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के मामले में वैवाहिक बलात्कार समेत हर प्रकार के यौन उत्पीड़न को अपराध की श्रेणी में रखा जाए.[286] कमिटि ने सरकार से उचित जांच, अभियोजन और अपराधियों को सजा सुनिश्चित करने, बाल यौन उत्पीड़न रोकने के लिए जागरूकता अभियान चलाने और यौन हिंसा पीड़ितों का दोषारोपण रोकने के उपाय सुनिश्चित करने के लिए कहा और एक कारगर, सुलभ एवं बाल अनुकूल रिपोर्टिंग प्रणाली विकसित करने की मांग की.[287]
मई 2017 में भारत की तीसरी व्यापक सामयिक समीक्षा में[288] संयुक्त राष्ट्र के करीब 33 सदस्य देशों ने महिलाओं के खिलाफ हिंसा और भेदभाव पर चिंता जताई और कुछ देशों ने विशेष तौर पर भारत सरकार से मौजूदा नीतियों एवं कानून को बेहतर तरीके से लागू करने को कहा ताकि महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा को दर्ज करना, उसकी जांच और उचित अभियोजन सुनिश्चित किया जा सके.[289]
VII. अनुशंसाएं
भारत में भरोसा जगाने वाली कानून और नीतियों सम्बन्धी पहल प्रायः प्रभावकारी क्रियान्वन के अभाव में लड़खड़ा जाती है. यौन हिंसा की शिकार महिलाओं और लड़कियों को न्याय एवं चिकित्सकीय देखभाल तक पहुँच में मदद करने के लिए बनाए गए कानून भी अपवाद नहीं हैं. भारत की केंद्रीय सरकार को राज्य सरकारों, पुलिस, चिकित्सा सेवा एवं फॉरेंसिक संस्थानों, न्याय व्यवस्था, बाल कल्याण समितियों, राज्य एवं राष्ट्रीय महिला आयोगों, नागरिक संगठनों और क़ानूनी सहायता संस्थानों के साथ मिलकर अविलम्ब कार्रवाई करनी चाहिए ताकि इन क़ानूनों और कार्यक्रमों के क्रियान्वन को सुनिश्चित किया जा सके और महिलाओं एवं बच्चों के लिए न्याय एवं चिकित्सकीय सुविधाओं के रास्ते में आने वाली बाधाओं को समाप्त किया जा सके.
भारतीय संसद के लिए
- महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए सरकार से कानूनों के कार्यान्वन का नियमित रूप से ब्यौरा मांगे.
- गवाहों की सुरक्षा के लिए कानून लागू करे जिसमें महिलाओं, लड़कियों और उनके परिवार की सुरक्षा शामिल हो, जो यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करने पर प्रति-हिंसा का सामना करते हैं. इस कानून में कानून केंद्र एवं राज्य सरकारों को गवाह सुरक्षा कार्यक्रम के लिए पर्याप्त धन मुहैया कराने हेतु दिशानिर्देश जारी करने का प्रावधान रहना चाहिए.
- सभी महिलाओं और किशोरियों के सुरक्षित गर्भपात के अधिकार को मान्यता देने के लिए गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम,1971 (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट) में संशोधन करे.
- किशोर न्याय (सुरक्षा एवं देखभाल) अधिनियम में संशोधन कर यह सुनिश्चित करे कि 18 वर्ष से कम उम्र के किसी भी बच्चे को व्यस्क मान कर उस पर मुक़दमा नही चलाया जाए.
- 18 वर्ष से कम उम्र के किशोरों के बीच सहमति से बनने वाले यौन संबंधों के मौजूदा प्रमाणों सहित विधायी प्रारूपण में साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण अपनाए. किशोरों की विकसित होती योग्यता और परिवक्वता को दर्शाने के लिए यौन संबंधों में सहमति के लिए न्यूनतम आयु सीमा कम करने के सुझाव पर विचार करे; सभी प्रकार की लैंगिक हिंसा से आज़ादी और यौन शिक्षा प्राप्त करने के उनके अधिकार का सम्मान करें; प्रजनन एवं यौन स्वास्थ्य सेवाओं तक भेदभाव रहित पहुँच सुनिश्चित करे और किशोरों को जिम्मेदारी के साथ अपनी यौनिकतासे निपटने में मदद करे. यह सुनिश्चित करे कि ये कानून उन बच्चों को ही सजा न दे जिनकी सुरक्षा के लिए इसे बनाया गया है.18 वर्ष से कम आयु के किशोर जो अपने हमउम्र साथियों के साथ सहमति से यौन सम्बन्ध बनाते हैं उन्हें आपराधिक दंड नहीं दिया जाए.
- यौन अपराध समेत सभी प्रकार के अपराधों के लिए मृत्युदंड की सजा को समाप्त करे. ह्यूमन राइट्स वॉच मृत्युदंड की निर्ममता और परिसमाप्ति के कारण तमाम परिस्थितियों में मृत्युदंड का विरोध करता है.मृत्युदंड अनिवार्य रूप से निरंकुशता, पक्षपात और त्रुटियों से ग्रस्त होता है.
केंद्र एवं राज्य सरकारों के लिए
- आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 और यौन हिंसा उत्तरजीवियों की मदद के लिए घोषित नीतियों को लागू करें.
- लैंगिक हिंसा से जुड़े मामलों में बेहतर कार्रवाई के लिए पुलिस पदाधिकारियों, न्यायायिक पदाधिकारियों और चिकित्सा पेशेवरों को बेहतर प्रशिक्षण दें एवं उन्हें संवेदनशील बनाएं.
- यह सुनिश्चित करें कि वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर अच्छी तरह से सुसज्जित एवं आसान पहुँच में हों, इन केन्द्रों के लिए एक निगरानी व्यवस्था स्थापित करें, जवाबदेही रिपोर्ट्स का समय-समय पर प्रकाशन करें और सुनिश्चित करें कि निर्भया कोष से वितरण में पारदर्शिता बरती जाए.
- महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा से सम्बंधित कानून एवं नीतियों की व्याख्या एवं प्रयोग में एकरूपता सुनिश्चित करने के लिए ऐसी मानक संचालन प्रक्रिया विकसित करें, अपनाएं और लागू करें जो पुलिस, फॉरेंसिक विशेषज्ञ और न्यायपालिका के लिए वैधानिक रूप से बाध्यकारी हो और सार्वभौमिक रूप से उनपर पर लागू हो.
- सार्वजनिक स्थानों को सुरक्षित और महिलाओं के लिए उनकी पहुँच आसान बनाने के लिए महिला अधिकार संगठनों, नागरिक संगठनों, नगरीय योजनाकारों और दूसरों के साथ जुड़ कर निश्चित समयाविधि में ठोस योजना विकसित कर उसे लागू करें.
- महिलाओं और किशोरियों के बीच उनके अधिकारों और यौन हिंसा के मामलों में न्याय हासिल करने की प्रक्रिया के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए जनसूचना अभियान चलायें.
- बच्चों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा रोकने के लिए सरकार की शिक्षा अधिकार नीति के तहत बच्चों के लिए एक पाठ्यक्रम की शुरुआत कर उसे लागू करें ताकि उम्र-सापेक्ष जानकारी, हुनर और आत्मसम्मान के माध्यम से बच्चों की स्वयं की सुरक्षा के लिए बाल सहभागिता में मदद मिले.
- स्कूल और कॉलेजों में अनिवार्य रूप से यौन शिक्षा को लागू करें.
चिकित्सा उपचार एवं जांच
- यौन हिंसा के उत्तरजीवियों/पीड़ितों की चिकित्सकीय-कानूनी देखभाल के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के दिशा-निर्देश और प्रोटोकॉल को अपनाएं और लागू करें.
- इन दिशानिर्देशों के बारे में चिकित्सकों, पारा-चिकित्सकों, नर्सों और अन्य स्वास्थ्य पेशेवरों को सामयिक प्रशिक्षण दें.
- सुनिश्चित करें कि चिकित्सा प्रपत्र और सहमति प्रपत्र स्थानीय भाषाओँ और अन्य सुलभ प्रारूप में उपलब्ध हों जो पढ़ने-समझने में आसान हों.
- वे सभी बलात्कार पीड़ितों, जो बलात्कार के कारण गर्भवती हो जाती हैं, सुरक्षित गर्भपात तक उनकी पहुँच के लिए दिशानिर्देश जारी करें, यह स्पष्ट करते हुए कि पंजीकृत चिकित्सक को बलात्कार पीड़ितों के 20 सप्ताह से अधिक के सुरक्षित गर्भपात के लिए गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम के अनुच्छेद 5 के तहत अपने अधिकार का इस्तेमाल करना चाहिए.
- परामर्शदाता और मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का ज़िलावार आंकड़ा तैयार करें और इस जानकारी को कर्मचारियों तक पहुँचाने के लिए 181 हेल्पलाइन्स, ओएससी योजना और फ़ास्टट्रैक कोर्ट योजना से समन्वय स्थापित करें.
न्यायिक सुधार
- राष्ट्रीय एवं राज्य न्यायिक संस्थानों और महिला, बाल और स्वास्थ्य अधिकारों के विशेषज्ञों से राय लेकर आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम 2013 और यौन हिंसा से बल संरक्षण अधिनियम, 2012 के प्रावधानों पर प्रशिक्षण को शामिल करने हेतु यौन हिंसा के उत्तरजीवियों के अधिकारों पर ट्रायल और अपीलीय अदालत के न्यायधीशों और सरकारी वकीलों के प्रशिक्षण का दायरा बढ़ाएं.
- यह सुनिश्चित करें कि दंडाधिकारी और न्यायधीश 2014 के चिकित्सकीय और कानूनी दिशानिर्देशों के प्रति जागरूक हों.
- बंद कमरे में सुनवाई के लिए दिशानिर्देश तय करें और सुनिश्चित करें कि महिलाओं और बच्चों के खिलाफ हिंसा से जुड़े मामले को निपटाने वाले फ़ास्ट ट्रैक अदालत और दूसरी अदालतों में कार्यरत न्यायिक अधिकारियों को उचित प्रशिक्षण हासिल हो.
- सरकारी वकीलों द्वारा उत्तरजीवियों की आवश्यकताओं को बेहतर तरीके से पूरा करने के लिए मानक संचालन प्रक्रिया स्थापित करें जिसके तहत सुनवाई से पूर्व उत्तरजीवी से भेंट करके उसे होने वाली सुनवाई के बारे में जानकारी दी जाए. चिकित्सकीय साक्ष्य के विस्तृत वर्णन और व्याख्या को भी मानक संचालन प्रक्रिया में शामिल किया जाए.
बाल कल्याण समितियां
- यौन हिंसा से बाल संरक्षण अधिनियम को ठीक तरह से लागू करने हेतु बाल अधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं से परामर्श लेकर प्रशिक्षण और दिशानिर्देश विकसित करें.
- सुनिश्चित करें कि सभी राज्यों में कार्यशील बाल और कल्याण समितियां हों और इनमें सेवा देने के लिए योग्य एवं स्वतन्त्र व्यक्तियों को नियुक्त करें. मानक संचालन प्रक्रिया अपनाएं और सुनिश्चित करें कि इन समितियों के पास सदस्यों के लिए पर्याप्त संसाधन हों जिनसे वे अपने सभी कामों को अंजाम दे पायें. यौन हिंसा के शिकार बच्चों के लिए पेशेवर परामर्श सेवाएं सुनिश्चित करें.
- यह सुनिश्चित करें कि समितियों के कार्यालय बच्चों से पूछताछ के लिए सुरक्षित और उपयुक्त हों और समिति के संभावित सदस्यों का निजी स्वार्थ का टकराव न हो. पद ग्रहण करने से पहले बाल कल्याण समितियों के सभी सदस्यों को बच्चों से पूछताछ करने के लिए प्रशिक्षण दें.
मुआवज़ा और पुनर्वास
- यह सुनिश्चित करें कि सभी राज्य बलात्कार पीड़ितों के मुआवज़े के लिए केंद्र सरकार द्वारा आज्ञापत्रित न्यूनतम राशि स्वीकृत करें.
- मुआवज़े की योजना के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए जनसूचना अभियान चलायें. सुनिश्चित करें कि योजना पुलिस थानों, अस्पतालों और अदालतों में दिशानिर्देशों के माध्यम से प्रचारित की जाए ताकि बलात्कार के उत्तरजीवी इसके प्रावधानों और इसे प्राप्त करने की प्रक्रियाओं के बारे में जागरूक हों.
केंद्रीय एवं राज्य गृह मंत्रालयों और पुलिस सेवाओं के लिए
- नियतकालिक रूप से गुणात्मक एवं परिमाणात्मक दोनों तरह के स्वतंत्र अध्ययन कराएँ ताकि इस बात की निगरानी की जा सके कि पुलिस उन प्रक्रियाओं का पालन कर रही है या नहीं जो लैंगिक हिंसा पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा करती हैं. ऐसे अध्ययनों के परिणामों को प्रकाशित करें और उपयुक्त सुधार करें.
- हर राज्य में वार्षिक लक्ष्य निर्धारित करके महिला पुलिस अधिकारियों की संख्या बढ़ाने के लिए एक कार्य परियोजना विकसित करें और उसे लागू करें तथा उनकी प्रोन्नति के अवसरों का संज्ञान लें. सुनिश्चित करें कि सभी महिला पुलिस अधिकारियों को यौन हिंसा समेत तमाम प्रकार की लैंगिक हिंसा के उत्तरजीवियों की जरूरतों, और ज़ोखिम का सामना कर रहे समूहों जैसे विकलांग महिलाओं और लड़कियों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील बनाया जाए.
- दंड संहिता की धारा 166 ए और पोस्को अधिनियम की धारा 21 के कार्यान्वयन के बारे में सूचनाओं को नियतकालिक रूप से जमा करके उन्हें प्रकाशित करें ताकि इन धाराओं में एफ़आइआर दर्ज करने से इनकार करने के एवज में सज़ा पाने वाले पुलिस पदाधिकारियों की संख्या दर्ज की जा सके.
- राज्य पुलिस अकादमियों, न्यायधीशों और (महिलाओं, बच्चों, विकलांगों के अधिकारों तथा स्वास्थ्य अधिकार) विशेषज्ञों से परामर्श करके यौन अपराध मामलों की जांच एवं अभियोजन से जुड़े पुलिस कर्मियों के लिए और उत्तरजीवियों के अधिकारों पर विशेष कार्यक्रमों का आयोजन करें. प्रशिक्षण में निम्नलिखित चीज़ें शामिल होनी चाहिए:
- आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम 2012 और यौन अपराध से बाल संरक्षण अधिनियम 2013 के प्रावधानों पर प्रशिक्षण.
- यौन हिंसा उत्तरजीवियों द्वारा शिकायत दर्ज करने, त्वरित चिकित्सा सुविधा प्राप्त करने, क़ानूनी प्रतिनिधित्व हासिल करने और अन्य सहयोग सेवाएं हासिल करने में मदद के लिए संवेदनशीलता.
- यौन हिंसा मामलों से जुड़े जाँच अधिकारियों के लिए अनिवार्य प्रशिक्षण. यौन हिंसा मामलों में प्रयुक्त जांच के तरीकों, सदमा ग्रस्त पीड़ितों के साथ काम करने, पीड़ितों को उत्पीड़न से बचाव हेतु पुलिस संरक्षण, ज़मानत की शर्तों के इस्तेमाल और साक्ष्यों का संग्रह एवं सुरक्षित रख-रखाव को प्रशिक्षण में शामिल करना चाहिए.
- पुलिस के दुर्व्यवहार और कोताही से निपटने के लिए स्वतन्त्र शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना समेत प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ मामले में उच्च न्यायलय द्वारा पुलिस सुधार हेतु अनुशंसाओं को लागू करें.
- प्रकाश सिंह बनाम भारतीय संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुलिस के कार्यों में जाँच और कानून तथा व्यवस्था को अलग करने के निर्देश को लागू करने के लिए सिर्फ जाँच कार्यों हेतु प्रशिक्षित पुलिस पदाधिकारियों को अच्छी-खासी तादाद में तैनात किया जाए.
- जाँच में मदद कर पाने वाली तकनीक में प्रशिक्षण और उस तकनीक की उपलब्धता प्रदान करें और फॉरेंसिक विज्ञानं पढ़ाने योग्य अनुदेशकों को आकर्षित करने के लिए क़दम उठायें. संदिग्धों और गवाहों से पूछताछ के लिए जांच अधिकारियों को आधुनिक और ऐसी तकनीक का प्रशिक्षण दें जिसमें बल का प्रयोग न हो. मोबाइल फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं समेत राज्य एवं स्थानीय फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं में पर्याप्त संसाधन मुहैय्या कराएँ ताकि वे उचित समय सीमा के भीतर सबूतों की जांच रिपोर्ट पुलिस को सौंप सकें.
- स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय तथा केंद्रीय एवं राज्य न्यायिक सेवाओं के साथ जुड़कर काम करें ताकि मनोवैज्ञानिकों और विधि सहायता अधिवक्ताओं का ज़िलावार आंकड़ा तैयार किया जा सके जिससे कि लैंगिक-हिंसा के मामलों में पुलिस के पास सहायता के लिए आने वाली महिलाओं और बच्चों की मदद के लिए वे उपलब्ध रहें.
राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के लिए
- सूचीबद्ध वकीलों की संख्या, विशेष रूप से जिला एवं उप-जिला स्तर पर बढ़ाने के लिए सालाना लक्ष्य तय करे, और क्रमशः इनकी उपलब्धियों की निगरानी करे.
- नवीनतम न्यायायिक फैसलों और तकनीकी प्रक्रियाओं पर सूचीबद्ध क़ानूनी सहायता अधिवक्ताओं के नियतकालिक प्रशिक्षण के लिए राज्य एवं जिला स्तर पर वरीय आपराधिक वकीलों के एक बोर्ड का गठन करे.
- विधिक सेवा प्राधिकार की ओर से समुदाय में यौन हिंसा के उत्तरजीवियों के साथ काम करने वाले स्वयंसेवकों, जिन्हें अकसर पारा लीगल (अर्ध-विधिक) कहा जाता है, को पर्याप्त संसाधन मुहैया कराए.
- आपराधिक प्रक्रियाओं- जिनका यौन हिंसा समेत लैंगिक हिंसा के पीड़ितों को प्रभावी रूप से मदद करने के लिए वकीलों द्वारा उपयोग किया जाना चाहिए- पर राज्य, जिला और उप-ज़िला न्यायायिक सेवा अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम विकसित करे.
- यौन हिंसा के मामलों में मुफ्त क़ानूनी सेवा की पहुँच के बारे में महिलाओं, लड़कियों और महिला अधिकार संगठनों के बीच जागरूकता पैदा करे.
- बलात्कार पीड़ितों के मुआवज़े के मुद्दे पर जन जागरूकता अभियान चलाए.
राष्ट्रीय एवं राज्य महिला आयोगों के लिए
- यह सुनिश्चित करें कि यौन हिंसा के मामलों में राहत ढूंढ रही महिलाओं और लड़कियों के लिए महिला हेल्पलाइन एवं चाइल्ड हेल्पलाइन सेवा चौबीसों घंटे देश भर में उपलब्ध हो. यह सुनिश्चित करने के लिए कि विभिन्न विकलांगता वाले व्यक्तियों के लिए हेल्पलाइन उपलब्ध है, विभिन्न विकलांगता वाले लोगों, उनके प्रतिनिधि संगठनों और विकलांग अधिकार विशेषज्ञों से संपर्क करें. उदाहरण के तौर पर- कम सुनने वाली या बधिर महिलाओं के लिए लिखित सन्देश सेवा वाली हेल्पलाइन सेवा उपलब्ध हो.
- यौन हिंसा के उत्तरजीवियों को, विशेष रूप से अदालतों में, प्रभावी सहयोग सुविधाएँ प्रदान करें. सुनिश्चित करें कि सहयोग कर्मी यौन हिंसा से सम्बंधित क़ानूनों और उत्तरजीवियों से संवेदनशीलता बरतने में भली-भाँति प्रशिक्षित हों.
संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, दूसरी सम्बद्ध सरकारों, विदेशी दानकर्ताओं और सहायता (ऐड) संस्थाओं के लिए
- लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून लागू करने की भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धता का सम्मान करने के लिए भारत सरकार को प्रोत्साहित करें.
- यौन अपराधों से जुड़े क़ानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को तकनीकी सहायता प्रदान करें.
- यौन हिंसा से गुजरने के बाद न्याय की पहुँच से सम्बंधित मियादी परिमाणात्मक और गुणात्मक अध्ययन के लिए स्थानीय नागरिक संगठनों को सहयोग प्रदान करें.
- महिलाओं के बीच महिलाओं के खिलाफ हिंसा के प्रति जागरूकता बढ़ने के प्रयासों का समर्थन करें और पुरूषों को बचाव एवं जवाबी प्रयासों में सम्मलित करें. यौन हिंसा के मामलों में न्याय हासिल करने में महिलाओं और लड़कियों की सहायता और साथ ही पुरुषों और लड़कों के बीच बचाव एवं जवाबी प्रयासों को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को विकसित करने वाले भारतीय नागरिक संगठनों को को अधिक सहायता दें.
आभार
जयश्री बाजोरिया, ह्यूमन राइट्स वॉच के एशिया डिवीज़न की वरिष्ठ शोध सलाहकार, ने इस रिपोर्ट के लिए शोध किया और इसे तैयार किया. इसका सम्पादन दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने किया है. जेम्स रोस, कानून एवं नीति निदेशक; और जोसफ सौन्ड़र्स, उप कार्यक्रम निदेशक ने क्रमशः कानून और कार्यक्रम सम्बन्धी समीक्षा मुहैया कराई. विशेषज्ञ समीक्षा महिला अधिकार विभाग और बाल अधिकार विभाग के बेडे शेपर्ड द्वारा प्रदान की गई. इसके निर्माण में सहयोगी रहे हैं सीशीया वांग, एशिया डिवीजन एसोसिएट; मैडी कोट्टिंघम, पब्लिकेशन एंड फोटोग्राफी एसोसिएट; फित्जरॉय हेप्किंस, एडमिनिस्ट्रेटिव मैनेजर और जोस मार्तिनेज़, सीनियर पब्लिकेशन कोऑर्डिनेटर. एशिया डिवीज़न की एक प्रशिक्षु, नोरा राडटेक ने दूसरे देशों के वन स्टॉप सेंटर्स के श्रेष्ठ व्यवहारों की पड़ताल कर अनुसंधान सहायता प्रदान की.
रिपोर्ट पर मूल्यवान सुझाव और प्रतिक्रिया उपलब्ध कराने के लिए हम विशेष रूप से बाह्य समीक्षकों वृंदा ग्रोवर, नई दिल्ली स्थित वकील व मानवाधिकार कार्यकर्ता और राष्ट्रीय कानून विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रोफेसर मृणाल सतीश के लिए ऋणी हैं.
हम महिला अधिकारों और यौन हिंसा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं कई गैर-सरकारी संगठनों, कार्यकर्ताओं और वकीलों का धन्यवाद करना चाहते हैं, जिन्होंने हमारे साथ अपनी अंतर्दृष्टि और विश्लेषण साझा किया या फिर हमें सहायता प्रदान की. विशेष रूप से ह्यूमन राइट्स वॉच आशिफ शेख, अमु विंजुडा, क्रांति खोडे, मंजू चौहान, प्रियंका गोदल, प्रभा बोर सी, मुकेश राठौड, विरवती कुमारी, जितेंद्र कुमार, राघवेन्द्र कुमार, बृजलाल अहिरवार, मोहनलाल एरवाल, संगीता परमार और मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश की जन साहस की टीम; और हरियाणा में ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के वकील व मानवाधिकार कार्यकर्ता रजत कलसन का आभार प्रकट करता है.
हम सेंटर फॉर इन्क्वारी इनटू हेल्थ एंड अलाइड थीम्स (सेहत), मुंबई की संगीता रेगे और आरती चंद्रशेखर; संयुक्त राष्ट्र में एंडिंग वायलेंस अगेंस्ट वीमेन की अंजू पांडेय; टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई में स्कूल ऑफ़ जेंडर स्टडीज की अंजली दवे; महिला अधिकार कार्यकर्ता रेणुका पामेचा, जयपुर; और वकील मनीषा तुलपुले और देशराज सरोहा का भी शुक्रिया अदा करते हैं.
महिलाओं के विरुद्ध हिंसा से निपटने के लिए कानून, नीतियों और पहलकदमियों पर अपना विश्लेषण साझा करने के लिए हम वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह और लॉयर्स कलेक्टिव के आभारी हैं. सर्वोपरि, हम यौन हिंसा उत्तरजीवियों और उनके परिजनों के प्रति हमारा आभार प्रकट करना चाहेंगे जिन्होंने हमारे साथ अपने कठिन और अक्सर सांघातिक अनुभवों को साझा किया इस उम्मीद में कि उनकी कहानियां दूसरों की सहायता करने के लिए शीघ्र सुधारों में मदद करेंगी.