(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत सरकार को हिरासत में लिए गए म्यांमार के उन तमाम नागरिकों को तुरंत रिहा कर देना चाहिए जो शरण के लिए भारत आए हैं. सरकार को चाहिए कि उन दो महिलाओं की मौत की जांच करे जो म्यांमार से जान बचा कर भागी थीं और जून 2021 में मणिपुर में हिरासत में कोविड -19 से जिनकी मौत हो गई.
1 फरवरी को म्यांमार में हुए सैन्य तख्तापलट के बाद, म्यांमार के दसियों हजार नागरिक हिंसक कार्रवाई से बचने की खातिर देश छोड़कर भाग खड़े हुए हैं. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, लगभग 16 हजार म्यांमार के नागरिक सीमा पार कर भारत के चार सीमावर्ती राज्यों - मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में पहुंच चुके हैं. जान बचा कर भागने वालों में संसद सदस्य, लोक सेवक, सैन्य व पुलिस अधिकारी और नागरिक समाज एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल हैं. इनमें से अधिकांश गिरफ्तारी के डर से छिपे हुए हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “अपने जीवन और स्वतंत्रता पर खतरे के कारण भाग कर आ रहे म्यांमार के लोगों को भारत में सुरक्षित आश्रय दिया जाना चाहिए, न कि उन्हें हिरासत में लिया जाना चाहिए और अधिकारों से वंचित किया जाना चाहिए. भारत सरकार को चाहिए कि अपने अंतरराष्ट्रीय कानूनी दायित्वों का पालन करे और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र तक तुरंत पहुंच सुनिश्चित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी के साथ मिलकर काम करे.”
जून में, म्यांमार की दो महिलाओं, 46 वर्षीय मा म्यिंत और 40 वर्षीय मुखाई की मणिपुर के एक जिला अस्पताल में कोविड-19 से मौत हो गई. मा म्यिंत और मुखाई उन 29 म्यांमार नागरिकों में शामिल थीं जिन्हें 31 मार्च को विदेशी विषयक अधिनियम के तहत वैध यात्रा दस्तावेजों के बिना देश में प्रवेश करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. बाद में उन्हें जिला अदालत ने न्यायिक हिरासत में भेज दिया. 2 जुलाई को, मणिपुर स्थित समूह ह्यूमन राइट्स अलर्ट ने राज्य मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि सरकारी तंत्र अप्रवासी बंदियों को भोजन और पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल उपलब्ध नहीं करा रहा है और ये बंदी भोजन के लिए स्थानीय नागरिक समाज समूहों के दान पर निर्भर हैं.
ह्यूमन राइट्स अलर्ट के अनुसार, मा म्यिंत और मुखाई को अस्पताल तब ले जाया गया जब वे गंभीर रूप से बीमार हो गईं और भर्ती होने के तीन दिनों के भीतर दोनों की मौत हो गई. मणिपुर में शरण मांगने वाले कम-से-कम 13 अन्य लोग भी हिरासत में कोविड-19 से संक्रमित हुए.
फरवरी के बाद, म्यांमार हुंटा और सुरक्षा बलों ने तख्तापलट विरोधी राष्ट्रव्यापी आंदोलन के खिलाफ हिंसा और दमन का अधिकाधिक इस्तेमाल किया है. सुरक्षा बलों ने 920 से अधिक लोगों की हत्या की है और करीब 5,300 कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, लोक सेवकों और राजनेताओं को मनमाने ढंग से हिरासत में लिया है. मार्च में, भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में म्यांमार में हुई हिंसा की निंदा की और हिरासत में लिए गए नेताओं की रिहाई की मांग की, लेकिन साथ ही सरकार ने पूर्वोत्तर सीमावर्ती राज्यों को आदेश दिया कि “म्यांमार से अवैध प्रवासियों” के प्रवाह पर रोक लगाएं.
मिजोरम राज्य के मुख्यमंत्री, जहां फरवरी के बाद म्यांमार के नागरिक बड़ी तादाद में पहुंचे हैं, ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर कहा कि यह आदेश स्वीकार्य करने योग्य नहीं है और आग्रह किया कि इसके बजाय राष्ट्रीय सरकार शरणार्थियों को आश्रय प्रदान करे.
स्थानीय अधिकार समूहों ने कहा कि हालांकि भारतीय सीमा सुरक्षा बलों ने तख्तापलट के बाद म्यांमार से आने वाले किसी को भी वापस नहीं भेजा है और पूर्वोत्तर राज्यों के कई ग्राम पार्षदों ने शरणार्थियों की मदद करने की इच्छा जाहिर की है, लेकिन मोदी सरकार ने उनकी स्थिति के बारे में कोई स्पष्टता जाहिर नहीं की है. इसके अलावा, शरणार्थी की स्थिति के लिए आवेदन करने के लिए यह जरूरी है कि शरण मांगने वाला भारत में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) कार्यालय के नामित केंद्रों में से किसी एक पर जाकर आवेदन जमा करे, लेकिन पूर्वोत्तर में ऐसा कोई भी केंद्र नहीं है. नतीजे के तौर पर, उत्पीड़न से भाग कर भारत पहुंचे हजारों म्यांमार नागरिकों के सामने गिरफ्तारी, हिरासत में लिए जाने और संभावित म्यांमार वापसी का खतरा बना हुआ है.
अंतरराष्ट्रीय कानून पर आधारित हिरासत संबंधी यूएनएचसीआर के दिशा-निर्देशों के अनुसार सरकारी अधिकारी शरण मांगने वाले वयस्क लोगों को केवल तभी “अंतिम उपाय के रूप में” हिरासत में ले सकते हैं जब व्यक्तिगत मूल्यांकन के आधार पर वैध कानूनी उद्देश्य प्राप्त करने के लिए बहुत आवश्यक और समुचित उपाय के रूप में ऐसा किया जाए. हिरासत के वैध औचित्य को कानून में स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए और इसे अंतरराष्ट्रीय कानून में स्पष्ट रूप से दर्ज मान्य कारणों के अनुरूप होना चाहिए, जैसे कि जनता पर खतरे के प्रति चिंता, फरार होने की संभावना या किसी व्यक्ति की पहचान की पुष्टि करने में असमर्थता. सामान्य नियम के तौर पर, यातना और अन्य गंभीर शारीरिक, मनोवैज्ञानिक या यौन हिंसा के शिकार लोगों को हिरासत में नहीं लिया जाना चाहिए.
सीमावर्ती राज्यों में शरणार्थी काफी हद तक सहायता प्रदान कर रहे नागरिक समाज समूहों पर निर्भर हैं. कई समूहों ने राष्ट्रीय सरकार को पत्र लिखकर शरण मांगने वालों को मानवीय सहायता प्रदान करने और साथ ही यह सुनिश्चित करने की मांग की है कि यूएनएचसीआर सहित मानवीय आधार पर मदद करने वाली विशेष एजेंसियों की उन तक अबाधित पहुंच हो.
3 मई को, मणिपुर उच्च न्यायालय ने तीन पत्रकारों समेत म्यांमार के सात नागरिकों को दिल्ली जाने देने के लिए सुरक्षित मार्ग देने का आदेश दिया ताकि वे यूएनएचसीआर से संरक्षण प्राप्त कर सकें. अदालत ने कहा, “वे अपने जीवन और स्वतंत्रता पर आसन्न खतरे के तहत अपने मूल देश से जान बचा कर भागे हैं. वे शरणार्थियों/शरण मांगने वालों को सुरक्षा और पुनर्वास प्रदान करने के लिए मौजूद अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के तहत मदद की आशा रखते हैं. ऐसी स्थिति में, इस बात पर जोर देना कि वे ‘शरणार्थी’ का दर्जा पाने संबंधी एक पूर्व शर्त के रूप में हमारे घरेलू कानूनों के स्वीकृत उल्लंघनों का पहले जवाब दें, जाहिर तौर पर अमानवीय होगा.”
हालांकि भारत 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी समझौता या 1967 के इसके औपचारिक नियमों और प्रक्रियाओं का हिस्सा नहीं है, लेकिन गैर-वापसी के अंतरराष्ट्रीय कानूनी सिद्धांत को एक प्रचलित अंतर्राष्ट्रीय कानून के रूप में मान्यता प्राप्त है जो सभी देशों के लिए बाध्यकारी है. गैर-वापसी का सिद्धांत देशों को किसी को भी ऐसे देश वापस भेजने से रोकता है जहां उन्हें उत्पीड़न, यातना या अन्य गंभीर क्षति का सामना करना पड़ सकता है.
2017 के बाद, भारत सरकार ने म्यांमार सेना द्वारा मानवता के खिलाफ अपराधों और नरसंहार के गंभीर आरोपों के बावजूद नृजातीय रोहिंग्याओं को म्यांमार वापस भेजने की बार-बार कोशिश की है. मार्च में, भारतीय अधिकारियों ने दिल्ली, जम्मू और कश्मीर में दर्जनों रोहिंग्याओं को म्यांमार वापस भेजने की योजना के साथ हिरासत में लिया. अप्रैल में, सुप्रीम कोर्ट ने उनके निर्वासन पर रोक लगाने संबंधी याचिका खारिज कर दी.
हिरासत में रह रहे अनेक रोहिंग्याओं ने बताया कि उनके पास यूएनएचसीआर द्वारा जारी पहचान संबंधी दस्तावेज हैं और म्यांमार में उनकी सुरक्षा को खतरा है. दस लाख से अधिक रोहिंग्या म्यांमार से भाग खड़े हुए हैं, जिनमें से ज्यादातर ने बांग्लादेश में शरण ले रखी है. इनमें से ज्यादातर वो हैं जिन्होनें अगस्त 2017 में शुरू हुए सेना के नृजातीय संहार के बाद म्यांमार छोड़ा था. म्यांमार के रखाइन राज्य में बचे हुए 6 लाख रोहिंग्या गंभीर दमन और हिंसा का सामना कर रहे हैं, उन्हें आवाजाही की कोई स्वतंत्रता नहीं है और वे नागरिकता से जुड़े या अन्य बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि रखाइन राज्य में रोहिंग्याओं का उत्पीड़न मानवता के खिलाफ रंगभेद और अत्याचार जैसे अपराधों के समतुल्य है.
भारत सरकार कहती है कि वह म्यांमार से आए ऐसे अनियमित रोहिंग्या प्रवासियों को वापस भेज देगी जिनके पास विदेशी विषयक अधिनियम के तहत जरूरी वैध यात्रा दस्तावेज नहीं हैं. मगर जबरन म्यांमार वापस भेजने का कोई भी प्रयास गैर-वापसी के सिद्धांत का उल्लंघन होगा.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि निष्पक्ष आश्रय प्रदान करने में भारत की विफलता या जीवन पर खतरे की वजह से म्यांमार से पलायन करने वालों के लिए यूएनएचसीआर को शरणार्थी निर्धारण करने की अनुमति से इंकार सरकार के अंतर्राष्ट्रीय कानूनी दायित्वों का उल्लंघन करते हैं.
गांगुली ने कहा, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी कानून के तहत अपने दायित्वों को पूरा करे. भारत सरकार को चाहिए कि भारत में शरण मांगने वाले म्यांमार के नागरिकों का सम्मान करे और भविष्य में होने वाले उत्पीड़न से उन्हें सुरक्षा प्रदान करे.”